सोमवार, 12 मई 2008

क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता...






क्यूँचुप हो कुछ बोलो श्वेता
मौंन बनी
क्यूँमुखरित श्वेता

क्षित की भी तुम सुन्दर-आभा
नील-गगन की हो परिभाषा
है पावक तुमसे ही शोभित
जल की हो तुम ही अभिलाषा

है समीर तुमसे ही चंचल, द्रुपद-सुता सी हो न श्वेता

महाशून्य से उद्दगम करती
दिग्ग-विहीन होकर हो बहती
सरिता महा-मौन की कैसी
हो अरूप रूपों को रचती

मौंन मुखर जीवन -छन्दो में, बस तुम ही होती हो श्वेता

इक कल को कल्पना बनाती
इक कल को जल्पना बनाती
वर्त्तमान भ्रम की परछाई
स्वप्न-छालित जागरण दिखाती

काल-प्रबल की हर स्वरूप की ,जननी क्या तुम हीं हो श्वेता

शब्द एक पर अर्थ कई है
डोर एक पर छोर नहीं है
जीवन मरण विलय कर जाते
रंग हीन के रंग कई है

हो अनंत का अंत समेटे, फिर भी अंत हीन हो श्वेता

है खुद से संलाप तुम्हारा
पंच-तत्व का गीत ये न्यारा
है अखंड आशेष प्रभा-मय

मौंन स्वयम्भू ब्रम्ह तुम्हारा

हो अद्रश्य में द्रश्य, द्रष्टि से फिर भी तुम ओझल हो श्वेता

विक्रम

मंगलवार, 6 मई 2008

एक उदासी इन्ही उनीदीं .पलकों के कर नाम


एक उदासी इन्ही उनीदीं .पलकों के कर नाम
मैनें आज बिता डाली फिर,जीवन की इक शाम

रजनी का तम रवि को तकता
हौले- हौले दर्द सिमटता


एक करूण शाश्वत जल-धरा,है नयनो के नाम


बिन समझे जीवन की भाषा
की थी बड़ी-बड़ी प्रत्यासा

कितनी लघु अंजली हमारी, आई न कुछ काम

है असाध्य जीवन की वीणा
बन साधक पाई यह पीड़ा


सूनी- साझ न जाने कब आ, देगी इसे विराम

vikram

शनिवार, 3 मई 2008

ओस जब बन बूँद बहती, पात का कम्पन मे छा रहा है


ओस जब बन बूँद बहती, पात का कम्पन ह्रदय मे छा रहा है
नीर का देखा रुदन किसने यहां पे ,पीर वो भी संग ले के जा रहा
है

लोग जो हैं अब तलक मुझसे मिले ,शब्द से रिश्तो में अंतर आ रहा है
अर्थ अपने जिन्दगी का ढूँढ़ने में, व्यर्थ ही जीवन यहाँ पे जा रहा है

इन उनीदी आँख के जब स्वप्न टूटे,दर्द में सुख बोध छिपता जा रहा है
तोड़ कर जब दायरे आगे बढ़ा,शून्य में पथ ज्ञान छिनता जा रहा
है

प्रश्न बनके कल तलक था सामने,आज वो उत्तर मुझे समझा रहा है
अब अधेरी रात में भी दूर के,दीप का जलना ह्रदय को भा रहा है

vikram