सोमवार, 28 जुलाई 2008

पीर को भी प्यार से.....................





कारवाँ बन जायेगा,चलते चले बस जाइये


मंजिले ख़ुद ही कहेगी,स्वागतम् हैं आइये


पीर को भी प्यार से,वेइंतिहाँ सहलाइये


आशिकी में डूबते,उसको भी अपने पाइये


हैं नजारे ही नहीं,काफी समझ भी जाइये


देखने वाले के नजरों,में जुनूँ भी चाहिये


बुत नहीं कोई फरिश्ते,वे वजह मत जाइये


रो रहे मासूम को,रुक कर ज़रा दुलराइये


टूटती उम्मीद पे,हसते हुए बस आइये


अपने पहलू में नई,खुसियां मचलते पाइये


विक्रम

रविवार, 27 जुलाई 2008

इन्हें भूलने.............


सुनो
तन्हाई में

अधरों पर अधर की छुवन
गर्म सासों की तपन

और एक दीर्ध आलिगन का एहसास
होता तो होगा
बीता कल कभी कभी
चंचल भौरे की तरह
मन की कली पर मडराता तो होगा
किसी न किसी शाम
डूबते सूरज को देख
मचलती कलाइयो को छुडा कर
घर की चौखट पर आना याद तो आता होगा
मुझे तो भुला दोगी
पर सच कहना
क्या
इन्हें भूलने का ,मन करता होगा

vikram

शनिवार, 26 जुलाई 2008

कितना कठिन मिलन हैं साथी .........
















कितना कठिन मिलन हैं साथी
रिश्तो का कैसा आडम्बर
जीवन में हैं प्रणय उच्चतर
जग-जीवन के सभी नियंत्रण,तोड़ दिए हैं हमने साथी
कितना कठिन मिलन हैं साथी
हम अब सारे भय तज करके
एक-दूजे के लय में बह के
अतुल प्यार से इस जगती में,ला देगे परिवर्तन साथी
कितना कठिन मिलन हैं साथी
जीवन के क्याँ जन अधिकारी
चिर-संगी तू बनी हमारी
मनुज नहीं देवो के सन्मुख किया मांग सिंदूरी साथी
vikram

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

वह पागल थी ...............

वह पागल थी ...............

रात्रि लगभग दो बजे किसी ने दरवाजे पे दस्तक दी। देखा तो दरवाजे पे एक बूढी औरत फटे हाल कपडो में खडी थी । उसने इशारों से मुझसे खाने के लिए कुछ देने को कहा। उसके हाव भाव से लग रह था, कि उसकी मानसिक स्थित ठीक नही है। मैने रसोईघर में जाकर देखा, पाँच रोटिया व थोड़ी सी सब्जी बची थी। वह लाकर मैने उसे दे दिया, और खाने के लिए कहा। उसने उगली से रोड की तरफ इशारा किया, ओर रोटी ले कर चल दी। उत्सुकता बस मै भी उसके पीछे चल पड़ा। रोड में बिजली के खंभे के पास एक कुत्ता बैठा हुआ था। कुत्ते की गर्दन में घाव था, ओर उससे बदबू भी आ रही थी। वह जाकर कुत्ते के पास बैठ गयी, ओर रोटी के टुकडे सब्जी के साथ कुत्ते को खिलाने लगी। पूरी रोटियां कुत्ते को खिलाने के बाद ,उसने अपनी धोती से एक टुकडा फाड़ कर निकाला ओर कुत्ते की गर्दन में बाध दिया। और खुद जाकर एक आम के पेड़ के नीचे सो गयी। मै खुद ही समझ नही पा रहा था कि इसे क्या समझू, पागलपन या ममता का प्रतीक.............
vikram

सोमवार, 21 जुलाई 2008

साथी अब न रहा जाता है


साथी अब न रहा जाता हैं

कैसा ये एकाकी पन हैं

मौन बना मेरा जीवन है

निर्जन राहों में तेरे बिन, मुझसे नहीं चला जाता है

नयन नहीं मेरे सोते हैं
देख सितारे भी रोते हैं

चँन्दा भी हर रात यहां से, कुछ उदास होकर जाता है

मन को फिर भी बहलाता हूँ
बिन स्वर के ही मैं गाता हूँ

बिन पंखो का कोई पखेरू,आसमान में उड़ पाता है
vikram

रविवार, 20 जुलाई 2008

आज रात कुछ थमी-थमी सी


आज रात कुछ थमी-थमी सी

स्वप्न न जानें कैसे भटके

नयनों की कोरो से छलके

दूर स्वान की स्वर भेदी से ,हर आशाये डरी-डरी सी

दर्दो का वह उडनखटोला
ले कर मेरे मन को डोला


स्याह रात की जल-धरा से ,मेरी गागर भरी-भरी सी

शंकाओ का कसता धेरा
कैसा होगा मेरा सवेरा
मंजिल के सिरहाने पर ये ,राहें कैसी बटी-बटी सी

विक्रम

आज फिर कुछ खो रहा हूँ ..


आज फिर कुछ खो रहा हूँ

करुण तम में है विलोपित
हास्य से हो काल कवलित

अधर मे हो सुप्त, सपनो से विछुड कर सो रहा हूँ

नग्न जीवन है, प्रदर्शित
काल के हाथों विनिर्मित

टूटते हर खंड में ,चेहरा मै अपना पा रहा हूँ

आज से है कल हताहत
अब कहां जाऊँ तथागत

नीर से मै नीड का निर्माण करके रो रहा हूँ


विक्रम

बडप्पन क्या होता हॆ, वह मुझे समझा गयी


बडप्पन क्या होता हॆ, वह मुझे समझा गयी
उसे लोग कगदी कह कर बुलाते हॆ। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पायी जाने वाली भिम्मा जाति से वह संबध रखती है । यह जाति परम्परागत आदिवासी लोक गीतों का गायन कर अपना जीविकापार्जन करती है। समय के साथ इनमे भी काफी बदलाव आ चुका है ,और धीरे धीरे समाज की मुख्य धरा से जुड़ते जा रहे है। हां मै कगदी के बारे में बता रहा था । बीस वर्ष पहले की बात हॆ ,उस समय कगदी अपने जीवन के करीब बाईस बसंत पार कर चुकी थी। सुंदर कद काठी के अलावा ईश्वर ने उसे गजब की आवाज प्रदान की थी। जब वह गाती समां बन जाता। ग्राम प्रधान होने के कारण ये लोग अपनी समस्याओं को लेकर मेरे पास आते रहते थे। एक दिन मेरे परचित रमजान के साथ राजेश नामक पशु व्यापारी मेरे आस आया । वह काफी परेशान लग रहा था । रमजान ने मुझे बताया की कगदी इन्हे परेशान कर रही है,अपनी नव जात बच्ची का पिता इन्हे बतला रही है। राजेश ने मुझसे कहा कि 'ठाकुर साहब आप उसे समझाइये मेरा उसके साथ कभी ऐसा सम्बन्ध नही रहा है,सिर्फ पॆसो के लालच में आकर वह ऎसा कर रही है, मॆ एक इज्जतदार आदमी हू उसकी इस हरकत से मेरी बहुत बदनामी होगी'। मॆने कगदी को उसकी बच्ची के साथ बुलवाया। अपनी दो माह की बच्ची को लेकर वह आयी। बच्ची को उसने आचल से ढक रखा था। मैने कगदी से नवजात कन्या का चेहरा दिखाने के लिए कहा। बच्ची को मॆ देखता ही रह गया , हू ब हू राजेश की तरह। मॆने उससे पूछा ,ये तुम्हारी संतान नही है? वह जवाब नही दे पाया,बस गिडगिडाते हुए बोला 'मेरी इज्जत बचा लीजिये जो कहेगे मॆ पैसा देने को तैयार हू। मेरे क्रोध की सीमा न रही,हाथ उठते उठते रह गया । मॆने उससे पूछा क्या यही तुम्हारा बड़प्पन है,क्या इस लड़की की कोई इज्जत नही है। अपने सम्मान को समाज व परिवार के नजरो में बचाने के लिए इसकी आबरू की कीमत लगा रहे हो । इस मासूम लड़की के बारे में सोचो ,है तो तुम्हारा ही खून। उसने बच्ची को देखा ,आखे डबडबा गई । कगदी की गोद से लड़की को उठा कर अपने सीने से लगा लिया। राजेश ने मुझसे कहा कि मॆ इसे पत्नी का दर्जा दूगा। कगदी ने उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया। उसने मुझसे कहा कि साहब मॆने यह बात किसी से नही कही ,ये ख़ुद मेरे परिवार वालो से बोला था कि शादी करके मुझे अपने साथ ले जायेगा पर इसने मुझे ही दोषी बना दिया । आज सुबह लड़की व मेरे लिये कपडे ले कर गया था, ऒर अब कह रहा हॆ कि मेरी ऒलाद ही नही हॆ। मुझे इससे कोई पॆसा नही लेना मॆ अपनी बिटिया को पाल लूगी। ऒर उसने जो कहा वह करके दिखा दिया.
कुछ समय के पश्चात उसने अपने ही जाति के युवक से शादी कर ली। अपनी लडकी को उसने पढाया लिखाया । अभी हाल ही में उसकी शादी भी कर दी,पर उसने राजेश से कोई सहायता नही ली। आज ही कुछ कार्य बस अपने पति के साथ मेरे पास आयी । लडकी की शादी ,साथ ही तीन ऒर बच्चो की जिमेदारी के कारण आर्थिक परेशानी से गुजर रही हॆ। मॆने उससे पूछा कि उस समय तुमने राजेश से अपना हक क्यूं नही लिया । मेरे इस प्रश्न पर वह कुछ देर सोचती रही। फिर बडे सहजभाव से बोली क्या करती साहब गलती तो हम दोनो की थी, उसकी भी बदनामी होती ,जो किस्मत मे लिखा हॆ वही होता हॆ।
बडप्पन क्या होता हॆ,वह मुझे समझा गयी।
vkram

मंगलवार, 15 जुलाई 2008

देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा





देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा





आजादी के बाद विकास की नई उचाईयो को छूने व विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का दर्जा पाने के बाद भी हम समान न्याय व्यवस्था के आधार पर एक भय मुक्त समाज का निर्माण करने में सफल नही हुये है। पुत्र द्वारा प्रताडित दम्पति को थाना प्रभारी द्वारा यह कहा जाता है कि " जो बोया था वही काट रहे हो,शिकायत करोगे ,वह बंद हो जायेगा। बाहर निकलेगा, तो काट डालेगा"। जिनसे सहायता की उम्मीद,उनसे यह उत्तर । प्रश्न उठता है कहा जायें ऐसे लोग। यह कोई पहला वाकिया नही है। रोज ऐसे प्रसंग देखने, सुनने,पढ़ने को मिल जाते है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ के नक्सली प्रभावित क्षेत्र में जाना हुआ। रायपुर पहुचते-पहुचते शाम हो गई .मेरे ड्राइवर ने रात्री में आगे न चलने की सलाह दी। जाना जरूरी था अत: यात्रा स्थगित नही की ,और सुबह होते-होते सुकमा पहुच गये।मन में जो भय था वैसा कोई वातावरण वहा देखने को नही मिला,जैसा टीवी व समाचार पत्रों में देखता या पढ़ता आया था। वहा के लोगो ने बताया कि नक्सलियों की लड़ाई सिर्फ सरकार से है,आम लोगो से नही। क्या सरकार में आम लोगो की सहभागिता नही या सरकार आम लोगो की नही ? कुछ वाकिये भी सुनने को मिले। एक आदमी को अपनी जमीन का पट्टा नही मिल पा रहा था उसने नक्सलियों से शिकायत की ,तीन दिन में पटवारी पट्टा घर में पंहुचा गया। जो काम हमारे प्रशासन को करना चाहिए वह नक्सली कर रहे है। समझ में नही आया कि नक्सलियों की सराहना करू या देश की प्रशासनिक व्यवस्था को कोसू। नक्सली तरीके से भी व्यवस्थित सभ्य समाज की स्थापना नही की जा सकती। लेकिन यह भी सच है कि दोष पूर्ण राजनीति से ही ऎसे हालात पैदा हुये हॆ। वैसे हो सकता है सभी मेरी बात से सहमत न हो ,पर मुझे लगता है कि राजनीत से देश के बुद्धिजीवियों का पलायन भी इसका बहुत बड़ा कारण रहा है। आजादी के बाद शिक्षा के अस्तर मे काफी सुधार आया,पर बुद्धिजीवी समाज का निर्माण नही हुआ। पहले का आदमी अशिक्षित जरूर था,पर था बुद्धिजीवी। अच्छे बुरे की पहचान थी उसको । आज का आदमी शिक्षित जरूर है, पर है शरीरजीवी, स्वहित के लिए सही-ग़लत के भेद को नकारता हुआ। समय रहते लोग सचेत नही हुये और सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक आधार पर इसके निदान के प्रयास नही किये गये,तो वह दिन भी दूर नही, जब देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा ।



विक्रम

मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ


मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ
या जीवन के सार-तत्व में आ बैठा हूँ
मैं अनंत की नीहारिका में अब क्या ढूढूँ
स्वंम पल्लवित सम्बोधन में खो बैठा हूँ

राग और अनुराग लिये मैं जी लेता हूँ
जीवन का यह जहर निरंतर पी लेता हूँ
सत्यहीन क्या सृजन कभी भी संभव होगा
आरोपित जब क्रिया कर्म को दूढ़ हूँ

दंड लिए मैं सहभागी को दूढ़ रहा हूँ
इसी क्रिया में अपनों से ही रूठ रहा हूँ
मैं भुजंग की फुफकारो में रच बस बस करके
मलय पवन की शीतलता को खोज रहा हूँ

इति जीवन अध्याय निकट मैं समझ रहा हूँ
न जाने क्यूँ प्रष्ठ नये मैं जोड़ रहा हूँ
कठपुतली बस नचे डोर ये छोड़ न पाये
इस सच से मैं नहीं स्वयं को जोड़ रहा हूँ

vikram

दर्द को दिल में उतर जाने दो


दर्द को दिल में उतर जाने दो
आज उनको भी कहर ढाने दो

रात हर चाँद से होती नहीं मसरुफे-सुखन
स्याह रंगो के नजारे भी नजर आने दो

एक अनजानी सी तनहाई, सदा रहती है
आज महफिल में उसे नज्म कोई गाने दो

जिनने दरियाओं के मंजर ही नहीं देखे हैं
उन सफीनो पे-भी अफसोस जरा करने दो

कोई वादे को निभा दे यहाँ ऐसा तो नहीं
सर्द वादों को कोई राह नई चुनने दो

चंद कुछ राज यहाँ यूँ ही दफन होते नहीं
आज अपना ही जनाजा मुझे ले जाने दो


vikram