बुधवार, 30 अप्रैल 2008

साथी बैठो कुछ मत बोलो


साथी बैठो कुछ मत बोलो

करने दो उर का अभिन्दन
अधरों का लेने दो चुम्बन


मेरी सासों की आहट पा, नयन द्वार हौले से खोलो

सही मूक नयनों की भाषा
पर कह जाती हर अभिलाषा

आज मुझे पढ़ने दो इनको, लाज भारी लाली मत धोलो

सच कहना है आज निशा का
अधरों पे दो भार अधर का

तरू पातों से कम्पित तन पर , तुम मेरा अधिकार माग लो

vikram

रविवार, 27 अप्रैल 2008

वह सुनयना थी ...............

वह सुनयना थी
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती
और दीवाल के पास बैठकर
अपनी नन्ही उगलियों से, भीती में चित्र बनाती
अनगिनत-अनसमझ, कभी रोती कभी गाती

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
मुझे देख सकुचाई थी
नव-पल्लव सी अपार शोभा लिए,पलक संपुटो में लाज को संजोये
सुहाग के वस्त्रों में सजी,उषा की पहली किरण की तरह, कॉप रही थी
जाने से पहले मागने आयी थी ,वात्सल्य भरा प्यार
जो अभी तक मुझसे पा रही थी

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
दबे पाव,डरी सहमी सी, उस कबूतरी की तरह
जिसके कपोत को बहेलिये ने मार डाला था
संरक्षण विहीन
भयभीत मृगी के समान ,मेरे आगोश में समां गयी थी
सर में पा ,मेरा ममतामईं हाथ
आसुवो के शैलाब से,मेरा वक्षस्थल भिगा गयी थी
सफेद वस्त्रों में उसे देख ,मैं समझ गया था
अग्नि चिता में,वह अपना ,सिंदूर लुटा आयी थी

वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
नहीं इस बार दरवाजे पे
दबे पाँव नहीं
कोई आहट
नहीं
कोई आँसू नहीं
सफेद चादर से ढकी, मेरे ड्योढी में पडी थी
मैं आतंकित सा, कापते हाथो से, उसके सर से चादर हटाया था
चेहरे पे अंकित थे वे चिन्ह
जो उसने, वासना के, सडे-गले हाथो से पाया था
मैने देखा,उसकी आखों में शिकायत नहीं,स्वीकृति थी
जैसे वह मौन पड़ी कह रही हो
हे पुरूष, तुम हमे
माँ
बेटी
बहन
बीबी
विधवा
और वेश्या बनाते हो
अबला नाम भी तेरा दिया हैं
शायद इसीलिए ,अपने को समझ कर सबल
रात के अँधेरे में,रिश्तो को भूल कर
भूखे भेडिये की तरह
मेरे इस जिस्म को, नोच-नोच खाते हो
क्या कहाँ ,शिक़ायत और तुझसे
पगले, शायद तू भूलता है
मैने वासना पूर्ति की साधन ही नहीं
तेरी जननी भी हूं
और तेरी संतुष्ति ,मेरी पूर्णता की निशानी हैं
मैं सहमा सा पीछे हट गया
उसकी आखों में बसे इस सच को मैं नहीं सह सका
और वापस आ गया ,अपने कमरे में
शायद मैं फिर करूगां इंतजार
किसी सुनयना का
वह सुनयना थी

vikram

शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008

कितनी खुशियाँ कितने ही गम जीवन में, संजोया

कितनी खुशियाँ कितने ही गम जीवन में, संजोया
कुछ यादों की खातिर मैं तो ,नही रात भर सोया


पल भर का था साथ, बनी पर लंबी एक कहानी
अंजाना वह कौन ,सदा करता मुझसे मनमानी

पाने की चाहत मे मैंने , खुद को कितना खोया
कुछ यादों ...................................................


पहचानीं सी दस्तक भी लगती कितनी अनजानी
जाने-अनजानें हर रिश्ते होते हैं बेमानीं

अंक भरी खुशियाँ जब खोयीं , मैं कितना था रोया
कुछ यादों ..........................................................

दर्द भरे एहसासों में , होती मृदुता पहचानीं
खुशियाँ भी सौदाई पन की होतीं हैं दीवानी

पल -भर मे खो गया यहां सब , दर्द नही ये खोया
कुछ यादों की खातिर मैं तो , नहीं रात भर सोया

vikram

गुरुवार, 24 अप्रैल 2008

मेरे जीवन में जब भी, अधियारे पल हैं आये

मेरे जीवन में जब भी, अधियारे पल हैं आये
मैने उनमे ही हरदम, उजियारे पथ हैं पाये

कष्टों से जब गुजरे, तब सुख क्या होता है जाना
रिश्ते टूटे तब मैने , संबंधो को पहचाना
स्वप्न बहुत सुन्दर देखे, साकार नहीं कर पाये
मेरे.................................................................


घोर निराशा हुयी तो, आशा ही जीवन है माना
ठोकर खाई तब मैने , क्या पीर पराई जाना
संवेदना के स्वर सदैव है ,व्यथित ह्रदय को भाये
मेरे..................................................................

मृग- तृष्णा सा स्वार्थ किया परमार्थ ,तभी मन माना
प्रेम त्याग में शांति , रहा न इससे मैं अनजाना
श्रद्धा में है शक्ति तभी , पत्थर ईश्वर बन जायें
मेरे...........................................................

vikram

मंगलवार, 22 अप्रैल 2008

मेरे हालात पर भी न, इतना रहम खाओ तुम

मेरे हालात पर भी न इतना रहम खाओ तुम

कि मुझको शर्म आजाये, दो आँसू भी गिराने में

ये गुलशन मैने सीचा था,गुलों को तुमने लूटा हैं

इन काटों को तो रहने दो,मेरा दामन चुभाने को

ये गिरना गिर के उठना, फिर से चलना खूब सीखा हैं

नजर में अपनों के गिरना,नहीं बर्दाश्त कर पाये

ये माना मैं हूँ जज्बाती,मगर इतना नहीं यारा

की सच और सब्र के दामन से,अपने को जुदा कर लूँ

vikram

बड़ा कौन ............

जीवन मे कभी कभी ऎसे प्रंसग भी आते हैं, जो हमारे अन्तर मन को छूने के साथ साथ अविस्मर्णीय व कुछ सोचने के लिये मजबूर कर देते हैं. ऎसी ही एक घटना का उल्लेख मै यहां पर कर रहा हूँ.

होलिका उत्सव का समय था,भीखू नाम का व्यक्ति अपनी उन्नीस वर्षीय बेटी मीनू के साथ मेरे पास आया.वह मेरे यहाँ से 70कि. मी. दूर स्थित ग्राम का निवासी था।उसने मुझे अपने ग्राम के ठाकुर साहब का पत्र दिया ,जिसमे उसे सहयोग देने की बात कही गयी थी। पूछने पर पता चला कि मेरे ग्राम का ही युवक उसे लिवा लाया था, अब वह उसे रखने को तैयार नही है,मैने उसे बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि इसका आचरण सही नही है , मीनू ने बताया कि यह शराब पीकर मारता है।काफी समझाने के बाद दोनो साथ रहने को तैयार हो गये।
कुछ माह बाद उनमे फिर झगडे होने लगे। गाव वालो ने भी मीनू को दोषी बताया। एक दिन मै कार्य वस घर से बाहर जा रहा था,वह फिर शिकायत लेकर आ गयी, उस दिन मैने उसे बहुत डाटा,और दुबारा न आने की हिदायत भी दी। शाम को जब मै घर वापस आया तो वह घर के आँगन में बैठी हुय़ी थी,
मै उसे कुछ बोलता, मेरी धर्मपत्नी ने कहा कि इसे मैने रोका है. कारण पूछने पर जो बताया वह काफी शर्मनाक और पीडा पहुचाने वाली बात थी। जब मीनू क़क्षा पाचवी की छात्रा थी उसी के स्कूल के शिक्षक ने उसके साथ शारीरिक संबंध बनाया । शिक्षक उन्ही ठाकुर साहब का भाई था, जिनका पत्र लेकर वह मेरे पास आई थीं। अब बदनामी के डर से वे लोग उसे गाव में नही रहने दे रहे थे. पहले मुझे उसकी बात पर यकीन नही हुआ, साथ ही उन ठाकुर साहब से मेरे सामाजिक ,राजनैतिक संबंध भी थे। लेकिन मेरी पत्नी कुछ
सुनने को तैयार ही नही थीं ,उन्होने यहाँ तक कह डाला कि अगर इसे न्याय नही दिलाया तो अब किसी की भी पंचायत आप नही करेगे। मैनें हकीकत जानने के लिए मीनू के भाई व बाप को बुलवाया। इस बात की जानकारी शिक्षक व उनके भाई को भी हो गयी और वे भी आ गए। उनका कहना था कि ये लड़की झूठ बोल रही है। उनकी बात का समर्थन मीनू के घर वाले भी करने लगे। मैनें सच्चाई जानने के लिए दोनो को आमने सामने किया, मीनू से नजर मिलते ही शिक्षक का चेहरा शर्म के मारे झुक गया और माफी मागते हुए मीनू के पैरों में गिर पडा, मीनू रोती हुयी पीछे हट गई और मुझसे बोली" दाऊ साहब जाने दीजिये ,इतने बडे आदमी मेरे पैरों में गिरे अच्छा नही लगता"। कौन बड़ा ,ये प्रश्न और उत्तर लगता हैं आज भी मेरे सामने खडे हुये हैं।
विक्रम

[वास्तविक नाम बदल दिए गए हैं] [विक्रम२ , पूर्व में पाकाषित]

रविवार, 20 अप्रैल 2008

सच नही कोई परिंदा, जाल मे फँस जाएगा

सच नही कोई परिंदा, जाल मे फँस जाएगा

कर हलाले-पाक उसको चाक कर खा जाएगा




रख जुबाँ फिर भी यहाँ तू , बे-जुबाँ हो जाएगा

देखकर शमसीर यदि तू , सच नहीं कह पायेगा



दिल्लगी में दिलकशी हो , दिल कहाँ फिर जाएगा

प्यार और नफरत में यारा , फर्क क्या रह जाएगा



प्यार अपने इम्तिहाँ के , दौर से बच जायेगा

वक़्त की तारीक मे , कैसे पढा वह जायेगा


vikram

गुरुवार, 17 अप्रैल 2008

हम आप की राहों में .................

हम आप की राहों में,दिन रात भटकते हैं
क्यूँ आप नहीं मेरे , जज्बात समझते हैं
आखों की छुवन दिल में,सिहरन सी जगा जायें
लवरेज वो लब तेरे, मदहोश बना जायें
पहलू में कभी आवो ,हम भी तो तरसते हैं
हम.............................................................
हम दिल की कहीं दिल से,कहने हैं यहाँ आये
यूँ आप न संग-दिल हों, जायें तो कहाँ जायें
चाहत भरी नजरों को,गुल ही तो समझते हैं
हम..........................................................
हर एक इबादत में ,बस नाम तेरा आये
मजमून भले कुछ हों,पैगाम तेरा लाये
कुदरत का करिश्मा हों,हम भी तो समझते हैं
हम.........................................................
विक्रम


मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

दर्द को दिल में उतर जाने दो

दर्द को दिल में उतर जाने दो
आज उनको भी कहर ढाने दो

रात हर चाँद से होती नहीं मसरुफे-सुखन
स्याह रंगो के नजारे भी नजर आने दो

एक अनजानी सी तनहाई, सदा रहती है
आज महफिल में उसे नज्म कोई गाने दो

जिनने दरियाओं के मंजर ही नहीं देखे हैं
उन सफीनो पे-भी अफसोस जरा करने दो

कोई वादे को निभा दे यहाँ ऐसा तो नहीं
सर्द वादों को कोई राह नई चुनने दो

चंद कुछ राज यहाँ यूँ ही दफन होते नहीं
आज अपना ही जनाजा मुझे ले जाने दो


विक्रम

रविवार, 6 अप्रैल 2008

दर्दों के साए में भी हम ,खेलेगे रंगोली

दर्दों के साए में भी हम ,खेलेगे रंगोली
तेरी खुशियां मेरे गम हों ,जैसे दो हमजोली


याद बहुत आये वो तेरा ,देर तलक बतियाना
साझ ढले छुप छुप कर तेरा ,चुपके से घर जाना

आयेगें न अब वे लम्हें , न रातें अलबेली

दर्दो ..........................................................

तुमने तो अपनी कह डाली, कौन सुने अब मेरी
संग बीते जो पल उनकी भी ,क्या हो सकती चोरी


उल्फत मेरी बन जायेगी ,तेरे लिए पहेली
दर्दों........................................................

मेरी तो आदत है ,अपनी धुन में चलते जाना
आज नहीं तो कल तुमको भी ,पीछे मेरे आना

यादें तेरी पल-छिन आकर, करती हैं अठखेली
दर्दों.................................................................

vikram

ऐ जिंदगी तुझे क्यूँ ..........

ऐ जिन्दगी तुझे क्यूँ ,मैने वफा था माना

ऐसा मिला हैं साहिल, ख़ुद से हुआ बेगाना

गमे-हिज्र से गुजर कर ,जिसकी तलाश की थी

नूरे-वफा से मैने ,जिसकी मिसाल दी थी

सरे वज्म आज उसने , मुझको नहीं पहचाना

ऐ ............................................................

उन्हें क्या कहें बता तू, जो दुआ दे कत्ल करते

राहों को करके रोशन, नजरो से नूर लेते

हैं उनकी ये अदा जी,मुझे जान से हैं जाना

ऐ.........................................................

कल जाने मय कदे में,किसने उन्हें पिलाई

लत उनकी बन गई हैं,मेरी जान पे बन आई

खूने जिगर से मेरे, उन्हें भरने दो पैमाना

ऐ.......................................................

vikram

तिमिर बहुत गहरा होता हैं

तिमिर बहुत गहरा होता है

रात चाद जब नभ मे खोता
तारो की झुरुमुट मे सोता

मेरी भी बाहो मे कोई,अनजाना सा भय होताहै

यादो के जब दीप जलाता

उतना ही है तम गहराता


छुप गोदी मे मॆ सो जाता ,शून्य नही देखो आता है

कही नीद की मदिरा पाता
पी उसको हर आश भुलाता

रक्त नयन की जल धारा को, जग कैसे कविता कहता है

विक्रम