रविवार, 8 जून 2008

क्या भूलूं क्या याद करूं मॆ.........


क्या भूलूं क्या याद करूं मैं

अब कैसा परिताप करूं मैं


या कोरा संलाप करूं मै

नील गगन का वासी होकर, कहाँ समंदर आज रचूँ मैं

खुशियों की झोली में छुप मैं

पीडा की क्रीडा में रच मैं

कर अनंत की चाह, ह्रदय को पशुवत आज बना बैठा मै


सच का सत्य समझ बैठा मै


अपने को ही खो बैठा मै


बिछुडन के पथ मे क्या ढूढूँ, सपनों की डोली में चढ़ मै


विक्रम

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