साथी शिथिल हुए पग मेरे
अर्थ हींन अज्ञात दिशा में
पथ विहीन हो शुष्क धारा में
सीमा-हीन तृषा रख उर में,मरू-थल के लेता था फेरे
निष्फल हुयी कामना मन की
रवि किरणों से स्वर्णिम रज की
धूलि-कणों में मैनें प्रतिदिन ,कंचन कण थे हेरे
रूठी मौन संगनी छाया
मेरे संग क्या उसने पाया
तम ने उसकी परवशता के ,बन्धन काटे सारे
स्वरचित.......................................................vikram
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