शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

आज कई .......................

आज कई रत -जगे हो गये

नीड़ नयन के ख्वाब हो गये

रिश्तो से अनुराग खो गये

चांद-चकोरी के किस्से भी, शब्दों के व्यापार हो
शब्द वही पर अर्थ खो गये
राग-रागनी व्यर्थ हो गये

जीवन की आपा-धापी में, हम अपनी पहचान खो गये

हम कितने अनजान हो गये
अनजाने मेहमान हो गये

घूंघट की चौखट में ,लम्पट नजरों के ही मान हो गये

svarachit.................................vikram




1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

विक्रम जी,बहुत सुन्दर रचना है।