आज कई रत -जगे हो गये
नीड़ नयन के ख्वाब हो गये
रिश्तो से अनुराग खो गये
चांद-चकोरी के किस्से भी, शब्दों के व्यापार हो
शब्द वही पर अर्थ खो गये
राग-रागनी व्यर्थ हो गये
जीवन की आपा-धापी में, हम अपनी पहचान खो गये
हम कितने अनजान हो गये
अनजाने मेहमान हो गये
घूंघट की चौखट में ,लम्पट नजरों के ही मान हो गये
svarachit.................................vikram
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1 टिप्पणी:
विक्रम जी,बहुत सुन्दर रचना है।
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