मंगलवार, 15 जुलाई 2008

मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ


मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ
या जीवन के सार-तत्व में आ बैठा हूँ
मैं अनंत की नीहारिका में अब क्या ढूढूँ
स्वंम पल्लवित सम्बोधन में खो बैठा हूँ

राग और अनुराग लिये मैं जी लेता हूँ
जीवन का यह जहर निरंतर पी लेता हूँ
सत्यहीन क्या सृजन कभी भी संभव होगा
आरोपित जब क्रिया कर्म को दूढ़ हूँ

दंड लिए मैं सहभागी को दूढ़ रहा हूँ
इसी क्रिया में अपनों से ही रूठ रहा हूँ
मैं भुजंग की फुफकारो में रच बस बस करके
मलय पवन की शीतलता को खोज रहा हूँ

इति जीवन अध्याय निकट मैं समझ रहा हूँ
न जाने क्यूँ प्रष्ठ नये मैं जोड़ रहा हूँ
कठपुतली बस नचे डोर ये छोड़ न पाये
इस सच से मैं नहीं स्वयं को जोड़ रहा हूँ

vikram

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सुन्दर लिखा है-


इति जीवन अध्याय निकट मैं समझ रहा हूँ
न जाने क्यूँ प्रष्ठ नये मैं जोड़ रहा हूँ
कठपुतली बस नचे डोर ये छोड़ न पाये
इस सच से मैं नहीं स्वयं को जोड़ रहा हूँ