रविवार, 20 जुलाई 2008

आज रात कुछ थमी-थमी सी


आज रात कुछ थमी-थमी सी

स्वप्न न जानें कैसे भटके

नयनों की कोरो से छलके

दूर स्वान की स्वर भेदी से ,हर आशाये डरी-डरी सी

दर्दो का वह उडनखटोला
ले कर मेरे मन को डोला


स्याह रात की जल-धरा से ,मेरी गागर भरी-भरी सी

शंकाओ का कसता धेरा
कैसा होगा मेरा सवेरा
मंजिल के सिरहाने पर ये ,राहें कैसी बटी-बटी सी

विक्रम

1 टिप्पणी:

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत सरस रचना है।

शंकाओ का कसता धेरा
कैसा होगा मेरा सवेरा

मंजिल के सिरहाने पर ये ,राहें कैसी बटी-बटी सी