सोमवार, 25 फ़रवरी 2008

क्यू तुम मंद मंद हसती हों

क्यू तुम मंद-मंद हसती हों


मधु-बन की हों चंचल हिरणी

बन बैठी मेरी चित- हरणी

कर तुम ये मृदु-हास , मेरे जीवन में कितने रंग भरती हों

क्यू तुम मंद-मंद ह्सती हों


तुम हों मैं हूँ स्थल निर्जन

बहक न जाये ये तापस मन

अपने नयनो की मदिरा से, सुध बुध क्यू मेरे हरती हो

क्यू तुम मंद मंद ह्सती हो


प्यार भरा हैं तेरा समर्पण

तुझको मेरा जीवन अर्पण

मेरे वक्षस्थल में सर रख क्याँ उर से बातें करती हों

क्यू तुम मंद मंद हसती हों

विक्रम

रविवार, 24 फ़रवरी 2008

साथी तुम बन आये मेरे

साथी तुम बन आये मेरे

जीवन काल-प्रबल की क्रीडा

अंत-हीन थी मेरी पीडा

आकर मेरे ह्रदय पटल पर ,आशाओं के चित्र उकेरे

साथी तुम बन आये मेरे

महा-मौंन यह भंग हुआ हैं

मुखर स्वरों में गान हुआ हैं

आज मेरे हर रोम-रोम में ,खुशिया बैठी डाले डेरे

साथी तुम बन आये मेरे

उर-उपवन मेरा महका हैं

हर पल अब मधुमास बना हैं

आज मेरे नयनो ने देखे , सपने मधुर सुनहरे

साथी तुम बन आये मेरे

vikram

शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2008

जीवन का यह सच भी देखा

जीवन का यह सच भी देखा


उत्तर नहीं प्रश्न इतने हैं


वृक्ष एक पर साख कई हैं


अनचाहे हालातों से भी, हाथ मिलाते सबको देखा


जीवन का यह सच भी देखा


दाता की वापिका हैं गहरी


काल-प्रबल हैं उसका प्रहरी


लघु-अंजलि में भर लेने की ,चाहत में जग को मैं देखा


जीवन का यह सच भी देखा


जब असत्य का तम गहराता


स्वप्निल छल से जग भ्ररमाता


सबल मुखरता को भी उस क्षण ,मौंन साधते मैने देखा


जीवन का यह सच भी देखा



विक्रम


शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2008

मैने अपने....

मैनें अपने कल को देखा

उन्मादित सपनों के छल से
आहत था झुठलाये सच से

तृष्णा की परछाई से,उसको मैने लड़ते देखा

मैने अपने कल को देखा

वर्त्तमान से जो कुछ पाया
उससे लगता था घबडाया

बीते कल की ओर पलट कर ,जाने की कोशिश में देखा

मैने अपने कल को देखा

जीवन-मरण संधि रेखा पर
राह न पाये खोज यहाँ पर


उसको अपनी दुर्बलता पर,फूट-फूट कर रोते देखा

मैने अपने कल को देखा

vikram

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

कभी कभी .........

कभी कभी



तन्हाई में,तुम्हारे होने का एहसास



तुम्हारे न होने के बाद भी



एक सिहरन भरी सुखद पीडा से



मेरे अन्तर मन को



सता जाता हैं



तुम



तुम्हारी अनंत यादे



जिन्हें मैं चाहता हूँ संजोना



पर वो



बसंती बहार की तरह,गुजर जाती हैं



एक अनजाना भय



समां जाता हैं ,मेरे अन्तर मन में



मैं भयभीत हों




परखने लग जाता हूँ मन कसॊटी में




तुम्हारे विश्वास को




इस सच के बाद भी




तुम मेरी हों




सच तो यह हैं




मैं स्वय ही बुन डालता हूँ




अपने आस पास




अविश्वास का मकड़जाल




ऒर हों उसका शिकार




झेलता हूँ




एक निअर्थक पीडा




शायद ये हॆ

हमारी दूरियो से उपजा

मेरे मन का अन्तरद्वंद

विक्रम














बुधवार, 13 फ़रवरी 2008

हे प्रभात तेरा ...................

हे प्रभात तेरा अभिनंदन

किरण भोर की, निकल क्षितिज से
उलझी ओस कणों के तन से

फूलों की क्यारी तब उसको, देती अपना मौंन निमंत्रण

भौरों के स्वर हुये गुंजरित
खग-शावक भी हुए प्रफुल्लित

श्यामा भी अपनी तानों से,करती जैसे रवि का पूजन

ज्योति-दान नव पल्लव पाया
तम की नष्ट हुयी हैं काया


गोदी में गूजी किलकारी, करती हैं तेरा ही वंदन


विक्रम

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2008

रूग्ण जीवन बाधित.......

रुग्ण जीवन
बधित पथ हैं
सोचता हूँ
मैं अकेला /चल सकूगा/ जी सकूगा
जिंदगी का बोझ लेके
आज कैसे
देखते हों
भावनाओं के समुन्दर में उठा तूफान कैसा
लग रहा हैं
मौत जैसे आ रही हैं
फिर वही
विक्षिप्त अपना नृत्य करती
अधर अपने आसुओं से तृप्त करती
हैं भयावह सोचना,पर क्या करूँ मैं
बाध्य जैसे
हों बहुत उद्दिग्न
अगणित कोशिकाओं सेगुजरती जा रही हैं
यह मेरी अन्यन्य पीड़ा
ओर मैं हूँ चाहता या ढूढता
मुक्ति का वह द्वार
बैठा जिंदगी की इस निशा में



vikram

रविवार, 10 फ़रवरी 2008

पंक्षी आता हैं ..................


पंक्षी आता हैं


शिला खंड में बैठ


अपने परों को फडफडाता हैं


सूरज


समेटने लगता हैं


अपनी स्वर्णिम छवि


जा छुपता हैं


पश्चिम के आँचल में





निशा गहरा जाती हैं


पंक्षी सो जाता हैं


परों को समेट अपने घोसले में


छा जाता हैं सन्नाटा


हाँ नहीं रुकता


झरने का बहना


पवन का चलना





पंक्षी निकालता हैं


अपना सर


घोसले के बाहर


परों को हौले-हौले फैलाता हैं


फैल जाती हैं


पूर्व में एक रक्तिम आभा


जैसे कर लिया हों किसी ने


सोती गोरी के अधरों का पान


हों गये हों शर्म से लाल


उसके गुलाबी गाल


होता हैं कुछ ऐसे ही विहान





सूरज

झाकता हैं सागर में

उठता हैं बादल

छा जाता हैं आकाश में

फिर

बूद बूद झर जाता हैं

छुपा सूरज को अपने दामन में


निकलता हैं अंकुर

पत्तो के नीचे

पत्ते

जो झड़ गये हैं डाल
से

पड़े हैं तने के पास

मृत्य

अंकुर

पचाता हैं

झरे पत्तो को

कर लेटा हैं श्रँगार

नव-पल्लवो से

कुछ बना कुछ बिगडा

या यूं कहें

सब हैं वही

केवल रूप बदला

सब का होता है अर्थ

जाने का आने का

बनने बिगड़ने का

वही हैं मौन

अपरिवर्त

अमिट अभेद्य

सृजन का क्रम

जो चलता हैं निरंतर

बन

भव्य मंद गंभीर


विक्रम



















































शनिवार, 9 फ़रवरी 2008

लम्हे दर लम्हे..........

लम्हे दर लम्हे जीवन में हालात बदलते रहते हैं
खारे जल वाले नयनों में, जज्बात पिघलते रहते हैं



पैहम थोडा जीने से मिले,हम खुद से इतना पूछ सके

पल दो पल की इन राहों में, हम क्यूँ सौदाई बनते हैं



शोलों की तपिस रख कर के भी, दिल कैसे इतना सर्द हुआ

उनके आने से भी कोई, तुफान नहीं अब उठते हैं



इतना उनसे कहना था मेरा,हम जामे-मोहब्बत पीते हैं

पीने से तोबा कर बैठे, मय-खाने से भी डरते हैं



उनकी चाहत में न जाने,कैसे इतना मशरूफ हुये

मेरी हालत में सुनते हैं, वो भी अफसाने लिखते हैं



विक्रम

रविवार, 3 फ़रवरी 2008

वसीयत ........

कौन

मैं हूँ प्रिय

क्या चाहते हों

परिचय तुम्हारे उत्तराधिकारी से

समझ आगंतुक का मनतब्य
मैने कहाँ
तुम्हारे एक रोटी के टुकडे की कीमत

मैने बाजार में

अपनी अस्मत बेच कर चुकाई हैं

क्या तुम्हे अभी संतुष्टि नहीं हों पायी हैं

वह हँसा और बोला

जो तुमने चुकाया वह मूळ था

सूद तो बाक़ी हैं

अपने वारिस को समझाना

तुम्हारे बाद उसे ही हैं इस कर्ज को चुकाना



अब कौन
मैं हूँ

अरे आप

अब यहाँ आये हैं

कौन से मंत्रों का करने जाप

मजबूर इंसानों में भगवान बेच रहें हैं

आप मेरा नहीं

सृष्टि करता का अपमान कर रहें हैं

धर्म गुरु

मुझे स्वर्ग नहीं ,नर्क जाना हैं

स्वर्ग पहले ही बेच चुके हों

कल आप को भी मेरे पास आना हैं

वे हसे ओर बोले

लगता हैं मौत से घबडा गये हों

अपने साथ साथ

अपने उत्ताराधिकारी को भ्रष्ट कर रहे हों

अरे उसे अपना कल बनाना हैं

आज तक तुम थे,कलउसे मेरी शरण में आना हैं



मेरे बेटे

जो अब आ रहे हैं

वो मानते हैं

खुद को दुनिया का भगवान

करने दो नतमस्तक होकर मुझे इनका सम्मान

बरना

कर देगें कोड़ों के मारो से छलनी

मेरा जिस्म

बच्चे इनसे बचना

हों सके तो

नतमस्तक ही रहना



ओह

आइये राजनीतिज्ञ

लगता मेरे अंत समय से नहीं थे आप अनभिग्य

हमने सुना हैं

हमारे दुःख तकलीफो का करते करते बयान

आप हों गए हैं अति विशिष्ट इंसान

अब हमारे पास क्यूँ आये हैं श्रीमान

क्या कहाँ

मेरी मौत पर आँसू बहाना हैं

गरीबो के सच्चे रहनुमा हों

इस बात का एहसास ,मेरी औलाद को कराना हैं



आप भी आ गये मेरे हमराज

क्या कह कर पुकारु

लेखक

चिन्तक

पत्रकार

या फिर कलाकार

तुमने तो देखा हैं

होते हुए मुझ पर अत्याचार

शोषित पीडित

आप का प्रिय पात्र रहा हैं

शायद मेरे जैसा इंसान

आप की जीविका का आधार रहा हैं

आपने हमारे दुखो को ऐसा दर्शाया

जिसे देख मेरा शोषक भी थर्राया

पदकों फूलों उपहारों से

तुमने उसी से अपना सम्मान कराया

यह सोच मैं भी शरमाया

जिसे मैने भोगा था

उसकी इतनी अच्छी अभिव्यक्ति

मैं क्यूँ नहीं कर पाया

मैं समझा था तुम्हे अपना हमराही

पर देख रहा हूँ

जाने अनजाने

तुम भी बन गये हों

मेरे आहों के व्यापारी



मेरे बाद मेरा बेटा

बन जाएगा मेरी वसीयत

ओर तुम लोग

इस वसीयत के उत्तराधिकारी



vikram

शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

जिन्दगी एक........


जिन्दगी

एक अर्ध विक्षिप्त-स्वप्न


या


फूल की कोमलता


पत्थर की कठोरता, के बीच का एक एहसास


कुछ भी हों


हम स्वतन्त्र हैं ,सोचने के लिये


इसके बारे में


जब तक जीते है


उसके बाद........?


हाँ




मैं भी जिंदा हूँ




मेरी भी सासें चल रहीं हैं


मैं बातें भी कर रहा हूँ



अपने जैसे जिंदा लोगों से



जिंदा होने का



इससे अच्छा एहसास



नहीं है मेरे पास



जिन्दगी ने छला है ,अभी तक सबको



पर मैं इसे छल रहा हूँ



यह खेलती है ,आँख मिचोली का खेल



यह छुप जाती है



लोग इसे पागलो की तरह ढूडते हैं


मैं भी खेल रह हूँ ,यही खेल



फर्क इतना हैं



मैं छुप जाता हूँ



ये मुझे ढूडती हैं



मैं खिलखिलाता हूँ, ये चिडचिडाती हैं



शायद यह चाहती हैं



वह छुपे ,मैं ढूढूँ



पर ऐसा नहीं हों रहा



लेकिन मैं जानता हूँ,जीतेगी वह ही



मैं थक जाऊँगा


छिपते छिपते




तब वह छुप कर बैठ जायेगी




और मैं




इस खेल से थका,विश्राम की चाह में




उसे ढूढनें भी नहीं जाऊँगा




और हों जाएगा पूर्ण विराम




इस खेल का




शायद जिसकी अनुभूति, मुझे भी नहीं होगी






vikram




























शुक्रवार, 1 फ़रवरी 2008

अपने पास................

अपने पास उन्हें जब पाऊँ

ऊषा जब प्राची में आये
प्रभा पुष्प सा तन खिल जायें

अपने हमराही के पथ पर,ओस कणों सी मैं झर जाऊँ

सोच रही कोयल बन जाऊँ
अमुआ की डाली में गाऊँ

जब आये बगिया का माली,कूक उसे उर छंद सुनाऊँ

रात चाँद जब नभ में आये
मन में मदहोशी सी छाये

चिर- भूखे भुजपाश उठाये,प्रिय आलिंगन में खो जाऊँ

vikram