शनिवार, 2 फ़रवरी 2008

जिन्दगी एक........


जिन्दगी

एक अर्ध विक्षिप्त-स्वप्न


या


फूल की कोमलता


पत्थर की कठोरता, के बीच का एक एहसास


कुछ भी हों


हम स्वतन्त्र हैं ,सोचने के लिये


इसके बारे में


जब तक जीते है


उसके बाद........?


हाँ




मैं भी जिंदा हूँ




मेरी भी सासें चल रहीं हैं


मैं बातें भी कर रहा हूँ



अपने जैसे जिंदा लोगों से



जिंदा होने का



इससे अच्छा एहसास



नहीं है मेरे पास



जिन्दगी ने छला है ,अभी तक सबको



पर मैं इसे छल रहा हूँ



यह खेलती है ,आँख मिचोली का खेल



यह छुप जाती है



लोग इसे पागलो की तरह ढूडते हैं


मैं भी खेल रह हूँ ,यही खेल



फर्क इतना हैं



मैं छुप जाता हूँ



ये मुझे ढूडती हैं



मैं खिलखिलाता हूँ, ये चिडचिडाती हैं



शायद यह चाहती हैं



वह छुपे ,मैं ढूढूँ



पर ऐसा नहीं हों रहा



लेकिन मैं जानता हूँ,जीतेगी वह ही



मैं थक जाऊँगा


छिपते छिपते




तब वह छुप कर बैठ जायेगी




और मैं




इस खेल से थका,विश्राम की चाह में




उसे ढूढनें भी नहीं जाऊँगा




और हों जाएगा पूर्ण विराम




इस खेल का




शायद जिसकी अनुभूति, मुझे भी नहीं होगी






vikram




























1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

bahut sahi kaha,jab hum zindagi ko dhundhte hai,wo chip jayegi,purnviram.