बधित पथ हैं
सोचता हूँ
मैं अकेला /चल सकूगा/ जी सकूगा
जिंदगी का बोझ लेके
आज कैसे
देखते हों
भावनाओं के समुन्दर में उठा तूफान कैसा
लग रहा हैं
मौत जैसे आ रही हैं
फिर वही
विक्षिप्त अपना नृत्य करती
अधर अपने आसुओं से तृप्त करती
हैं भयावह सोचना,पर क्या करूँ मैं
बाध्य जैसे
हों बहुत उद्दिग्न
अगणित कोशिकाओं सेगुजरती जा रही हैं
यह मेरी अन्यन्य पीड़ा
ओर मैं हूँ चाहता या ढूढता
मुक्ति का वह द्वार
बैठा जिंदगी की इस निशा में
vikram
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