गुरुवार, 14 फ़रवरी 2008

कभी कभी .........

कभी कभी



तन्हाई में,तुम्हारे होने का एहसास



तुम्हारे न होने के बाद भी



एक सिहरन भरी सुखद पीडा से



मेरे अन्तर मन को



सता जाता हैं



तुम



तुम्हारी अनंत यादे



जिन्हें मैं चाहता हूँ संजोना



पर वो



बसंती बहार की तरह,गुजर जाती हैं



एक अनजाना भय



समां जाता हैं ,मेरे अन्तर मन में



मैं भयभीत हों




परखने लग जाता हूँ मन कसॊटी में




तुम्हारे विश्वास को




इस सच के बाद भी




तुम मेरी हों




सच तो यह हैं




मैं स्वय ही बुन डालता हूँ




अपने आस पास




अविश्वास का मकड़जाल




ऒर हों उसका शिकार




झेलता हूँ




एक निअर्थक पीडा




शायद ये हॆ

हमारी दूरियो से उपजा

मेरे मन का अन्तरद्वंद

विक्रम














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