मरने की तमन्ना में, जीने का बहाना है
हर रात के आँचल में, ख्वाबों का खजाना है
फुरसत से कभी आवों,हमराज बना लेगें
वह दौर क़यामत तक,तुमसे ही निभा देगें
दुनियां तो है दो पल की,यह साथ पुराना है
मरने....................................................
थम-थम के जो बरसे तो,पलकों को गिले होंगे
गमे-राह में चलने के ,मंजर न बयां होंगे
अश्को के चलन में ही,उल्फत का फंसाना है
मरने.......................................................
इस दिल की तमन्ना को,कुछ भी तो शिला दोगे
इक राज बना इनको, सीने में दबा लोगे
अब रंग बना इनको,सपनों को सजाना है
मरने........................................................
vikram
बुधवार, 30 जनवरी 2008
मंगलवार, 29 जनवरी 2008
दर्द को दिल...........
दर्द को दिल में बसाना है मुझे
जिन्दगी को फिर से पाना है मुझे
इक मुकम्मल जिन्दगी के वास्ते
ज़ख्म अपनों से ही पाना है मुझे
रुँ-बरुँ हों कर न जिनसे मिल सके
अब उन्हें ख्वाबो में लाना है मुझे
ए-हिनां के रंग भी फीके लगे
खूनें-दिल ऐसा बहाना है मुझे
जज्बये-दिल की कशिश को हर सहर
है बना शबनम भिगोना अब उन्हें
फिर क़यामत तक न देखे ये जमीं
आशिकी में इस कदर मिटना मुझे
है बड़ी मासूम प्यारी सी मेरी ये जिन्दगी
बस किसी की याद में इसको रुलाना है मुझे
vikram
जिन्दगी को फिर से पाना है मुझे
इक मुकम्मल जिन्दगी के वास्ते
ज़ख्म अपनों से ही पाना है मुझे
रुँ-बरुँ हों कर न जिनसे मिल सके
अब उन्हें ख्वाबो में लाना है मुझे
ए-हिनां के रंग भी फीके लगे
खूनें-दिल ऐसा बहाना है मुझे
जज्बये-दिल की कशिश को हर सहर
है बना शबनम भिगोना अब उन्हें
फिर क़यामत तक न देखे ये जमीं
आशिकी में इस कदर मिटना मुझे
है बड़ी मासूम प्यारी सी मेरी ये जिन्दगी
बस किसी की याद में इसको रुलाना है मुझे
vikram
रविवार, 27 जनवरी 2008
भोर भई................
भोर भई अब छोड मुसाफिर, जीवन का यह धाम
बीती रात की बातो से अब, तेरा हॆ क्या काम
रेती से था महल बनाया
लहरों ने आ इसे मिटाया
रोने से न मिलने वाला,सपनो को कुछ मान
मान जिसे अपना तू आया
कर ऎसा खुद को भरमाया
पंछी तो उड गये डाल से, नेह हुआ बेकाम
तू तो हॆ कुछ पल की छाया
यह क्रम जग में चलता आया
मान इसे मत सोच मुसाफिर, रख विधना का मान
विक्रम
बीती रात की बातो से अब, तेरा हॆ क्या काम
रेती से था महल बनाया
लहरों ने आ इसे मिटाया
रोने से न मिलने वाला,सपनो को कुछ मान
मान जिसे अपना तू आया
कर ऎसा खुद को भरमाया
पंछी तो उड गये डाल से, नेह हुआ बेकाम
तू तो हॆ कुछ पल की छाया
यह क्रम जग में चलता आया
मान इसे मत सोच मुसाफिर, रख विधना का मान
विक्रम
शनिवार, 26 जनवरी 2008
आजादी के लिये.................
आजादी के लिये मौत को,हँस कर जिनने झेला
याद दिलाने उनकी फिर से आई है ये बेला
इस वतन के लिये भी जिये साथियो
वे तो हिन्दू भी थे,ऒर मुसलामा भी थे
पारसी सिक्ख देखो ईसाई भी थे
पर सही बात ये है मेरे दोस्तो
सबसे पहले वतन के सिपाही वो थे
नाम से उनके रोशन जहाँ साथियो
इस................................................
ज्योति आजादी का लेके चलते जो थे
उनसे दुश्मन के सीने दहलते भी थे
राम के साथ अब्दुल भी फाँसी चढा
जो वतन पर मिटे भाई भाई ही थे
उनकी कुर्बानी पर फक्र है साथियो
इस.............................................
खो अंधेरों में जो रोशनी दे गये
खुद को करके फंना जिन्दगी दे गये
आज का दिन उन्ही का दिया साथियो
इस गुलिस्ताँ के हकदार माली वो थे
मरते -मरते भी कह कर गये साथियो
इस.................................................
थे कहाँ से चले हम कहाँ आ गये
भाई -भाई के दुश्मन है क्यूँ बन गये
अपना बन के यहां छल गया जो हमे
वो भी जयचंद और मीरजाफर ही थे
उनकी चालों से अब हम बचे साथियो
इस.............................................
विक्रम
याद दिलाने उनकी फिर से आई है ये बेला
आइये याद उनकी करें साथियों
इस वतन के लिये भी जिये साथियो
वे तो हिन्दू भी थे,ऒर मुसलामा भी थे
पारसी सिक्ख देखो ईसाई भी थे
पर सही बात ये है मेरे दोस्तो
सबसे पहले वतन के सिपाही वो थे
नाम से उनके रोशन जहाँ साथियो
इस................................................
ज्योति आजादी का लेके चलते जो थे
उनसे दुश्मन के सीने दहलते भी थे
राम के साथ अब्दुल भी फाँसी चढा
जो वतन पर मिटे भाई भाई ही थे
उनकी कुर्बानी पर फक्र है साथियो
इस.............................................
खो अंधेरों में जो रोशनी दे गये
खुद को करके फंना जिन्दगी दे गये
आज का दिन उन्ही का दिया साथियो
इस गुलिस्ताँ के हकदार माली वो थे
मरते -मरते भी कह कर गये साथियो
इस.................................................
भाई -भाई के दुश्मन है क्यूँ बन गये
अपना बन के यहां छल गया जो हमे
वो भी जयचंद और मीरजाफर ही थे
उनकी चालों से अब हम बचे साथियो
इस.............................................
विक्रम
शुक्रवार, 25 जनवरी 2008
कहाँ नयन..................
कहाँ नयन मेरे रोते हैं
पलक रोम में लख कुछ बूदें
या टूटे पा मेरे घरौंदे
सोच रहे हों बस इतने से ,नहीं रात भर हम सोते हैं
जो जोडा था वह तोड़ा हैं
मिथ्या सपनों को छोडा हैं
पा करके अति ख़ुशी नयन ये,कभी-कभी नम भी होते हैं
बीते पल के पीछे जाना
हैं मृग-जल से प्यास बुझाना
खोकर जीने में भी साथी,कुछ अनजाने सुख होते हैं
vikram
पलक रोम में लख कुछ बूदें
या टूटे पा मेरे घरौंदे
सोच रहे हों बस इतने से ,नहीं रात भर हम सोते हैं
जो जोडा था वह तोड़ा हैं
मिथ्या सपनों को छोडा हैं
पा करके अति ख़ुशी नयन ये,कभी-कभी नम भी होते हैं
बीते पल के पीछे जाना
हैं मृग-जल से प्यास बुझाना
खोकर जीने में भी साथी,कुछ अनजाने सुख होते हैं
vikram
गुरुवार, 24 जनवरी 2008
मैं अंधेरो ....................
मैं अधेरों में घिरा, पर दिल में इक राहत सी है
जो शमां मैने जलाई ,वह अभी महफिल में है
गम भी हस कर झेलना ,फितरत में दिल के है शुमार
आशनाई सी मुझे ,होने लगी है इनसे यार
महाफिलो में चुप ही रहने की मेरी आदत सी है
मैं....................................................................
एक दर पर कब रुकी है,आज तक कोई बहार
गर्दिशो में हूँ घिरा ,कब तक करे वो इन्तजार
जिन्दगी को मौसमों के दौर की आदत सी है
मैं....................................................................
अपना दामन तो छुडा कर जानां है आसां यहां
गुजरे लम्हों से निकल कर कोई जा सकता कहाँ
कल से कल को जोड़ना भी ,आज की आदत सी है
मैं.....................................................................
बिक्रम
जो शमां मैने जलाई ,वह अभी महफिल में है
गम भी हस कर झेलना ,फितरत में दिल के है शुमार
आशनाई सी मुझे ,होने लगी है इनसे यार
महाफिलो में चुप ही रहने की मेरी आदत सी है
मैं....................................................................
एक दर पर कब रुकी है,आज तक कोई बहार
गर्दिशो में हूँ घिरा ,कब तक करे वो इन्तजार
जिन्दगी को मौसमों के दौर की आदत सी है
मैं....................................................................
अपना दामन तो छुडा कर जानां है आसां यहां
गुजरे लम्हों से निकल कर कोई जा सकता कहाँ
कल से कल को जोड़ना भी ,आज की आदत सी है
मैं.....................................................................
बिक्रम
वक्त मेरा जा...............
वक्त मेरा जा रहा हॆ
जल रही हॆ तन में ज्वाला
पी हलाहल का मॆ प्याला
एक मरुथल में पडा मॆ, अब न कोई आ रहा हॆ
हर तरफ गहरा अधेरा
प्रभा का लगता न फेरा
आज गहरे धुन्ध से, खुद मन मेरा घबडा रहा हॆ
थका हारा सा मेरा मन
कर रहा हॆ मॊन क्रन्दन
आश का पंछी भी मुझसे,दूर उडता जा रहा हॆ
विक्रम
जल रही हॆ तन में ज्वाला
पी हलाहल का मॆ प्याला
एक मरुथल में पडा मॆ, अब न कोई आ रहा हॆ
हर तरफ गहरा अधेरा
प्रभा का लगता न फेरा
आज गहरे धुन्ध से, खुद मन मेरा घबडा रहा हॆ
थका हारा सा मेरा मन
कर रहा हॆ मॊन क्रन्दन
आश का पंछी भी मुझसे,दूर उडता जा रहा हॆ
विक्रम
रात के.....................
रात के अन्धेरे में
मै
अपने दर्द को
हौले-हौले थपथपा के सहला के
सुलाने का प्रयास करता रहा
और तेरी यादें
किसी नटखट बच्चे की तरह
आ-आकर
न उसे सोने देती,न मुझे सुलाने देती
मै चिडचिडाता हूँ,बिगडता हूँ
पर सच तो यह है
मै
अपने आप को,यह समझा नहीं पाता हूं
कि मेरा दर्द और तेरी यादें
अलग-अलग नहीं एक है
तू नहीं तो क्या
मेरे पास
हमारे टूटे घरौदे के
कुछ अवशेष
अभी भी शेष हैं
[स्वरचित] विक्रम
मै
अपने दर्द को
हौले-हौले थपथपा के सहला के
सुलाने का प्रयास करता रहा
और तेरी यादें
किसी नटखट बच्चे की तरह
आ-आकर
न उसे सोने देती,न मुझे सुलाने देती
मै चिडचिडाता हूँ,बिगडता हूँ
पर सच तो यह है
मै
अपने आप को,यह समझा नहीं पाता हूं
कि मेरा दर्द और तेरी यादें
अलग-अलग नहीं एक है
तू नहीं तो क्या
मेरे पास
हमारे टूटे घरौदे के
कुछ अवशेष
अभी भी शेष हैं
[स्वरचित] विक्रम
शुक्रवार, 4 जनवरी 2008
साथी याद तुम्हारी....................
साथी याद तुम्हारी आये
सिंदूरी सन्धा जब आये
ले मुझको अतीत में जायें
रूक सूनी राहों में तेरा,वह बतियाना भुला न पाए
मधु-मय थीं कितनी वो रातें
मृदुल बहुत थीं तेरी बाते
अंक भरा था तुमने मुझको .फैलाकर नि:सीम भुजायें
प्राची में उषा जब आये
जानें क्यूँ मुझको न भाये
बिछुड़े हम ऐसे ही पल में, नयना थे अपने भर आये
[स्वरचित] vikram
सिंदूरी सन्धा जब आये
ले मुझको अतीत में जायें
रूक सूनी राहों में तेरा,वह बतियाना भुला न पाए
मधु-मय थीं कितनी वो रातें
मृदुल बहुत थीं तेरी बाते
अंक भरा था तुमने मुझको .फैलाकर नि:सीम भुजायें
प्राची में उषा जब आये
जानें क्यूँ मुझको न भाये
बिछुड़े हम ऐसे ही पल में, नयना थे अपने भर आये
[स्वरचित] vikram
बुधवार, 2 जनवरी 2008
वह फिर भी ..................
वह फिर भी अबला कहलाती
रचना अविराम जो करती
जीवन पथ आलोकित करती
रख नयनों में नीर ,रक्त से अपने,जग को जन है देती
निर्बल को जो बल है देती
ममता दे निर्ममता सहती
जग उसका करता है शोषण,वह जन-जन का पोषण करती
हर रुपों में जन को सेती
माँ, बहना,भार्या बन रहती
विस्मृ्ति कर अपने दुख सारे, जगती को सुखधाम बनाती
स्वरचित.............................विक्रम
रचना अविराम जो करती
जीवन पथ आलोकित करती
रख नयनों में नीर ,रक्त से अपने,जग को जन है देती
निर्बल को जो बल है देती
ममता दे निर्ममता सहती
जग उसका करता है शोषण,वह जन-जन का पोषण करती
हर रुपों में जन को सेती
माँ, बहना,भार्या बन रहती
विस्मृ्ति कर अपने दुख सारे, जगती को सुखधाम बनाती
स्वरचित.............................विक्रम
मंगलवार, 1 जनवरी 2008
थोड़ी सी मधु पी ...........
साथी थोड़ी सी मधु पी है
निर्मम था ,वह एकाकीपन
जिह्वा हीन कंठ सा क्रंदन
आयें रुदन श्रवन कर मेरे, उर-मधु से पीडा हर ली है
नयन स्वप्न को,शून्य हृदय को
मेरे जीवन के हर पल को
चिर अभाव हर तुमने प्रेयसि, सतरंगी आशा निधि दी है
नव कालियां पा उपवन महके
प्रणय स्वप्न नयनों में झलके
तेरे पलक संपुटो की, मदिरा उर प्याले में भर ली है
स्वरचित................................vikram
निर्मम था ,वह एकाकीपन
जिह्वा हीन कंठ सा क्रंदन
आयें रुदन श्रवन कर मेरे, उर-मधु से पीडा हर ली है
नयन स्वप्न को,शून्य हृदय को
मेरे जीवन के हर पल को
चिर अभाव हर तुमने प्रेयसि, सतरंगी आशा निधि दी है
नव कालियां पा उपवन महके
प्रणय स्वप्न नयनों में झलके
तेरे पलक संपुटो की, मदिरा उर प्याले में भर ली है
स्वरचित................................vikram
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