बुधवार, 2 जनवरी 2008

वह फिर भी ..................

वह फिर भी अबला कहलाती

रचना अविराम जो करती
जीवन पथ आलोकित करती

रख नयनों में नीर ,रक्त से अपने,जग को जन है देती

निर्बल को जो बल है देती
ममता दे निर्ममता सहती

जग उसका करता है शोषण,वह जन-जन का पोषण करती

हर रुपों में जन को सेती
माँ, बहना,भार्या बन रहती

विस्मृ्ति कर अपने दुख सारे, जगती को सुखधाम बनाती

स्वरचित.............................विक्रम

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