भोर भई अब छोड मुसाफिर, जीवन का यह धाम
बीती रात की बातो से अब, तेरा हॆ क्या काम
रेती से था महल बनाया
लहरों ने आ इसे मिटाया
रोने से न मिलने वाला,सपनो को कुछ मान
मान जिसे अपना तू आया
कर ऎसा खुद को भरमाया
पंछी तो उड गये डाल से, नेह हुआ बेकाम
तू तो हॆ कुछ पल की छाया
यह क्रम जग में चलता आया
मान इसे मत सोच मुसाफिर, रख विधना का मान
विक्रम
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1 टिप्पणी:
very nice,ek din to ye moh maya ki duniya chodke jana hi hai.abhi moh chuta nahi hai,neh bhi kayam hai.shayad kisi din chut jaye.
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