गुरुवार, 24 जनवरी 2008

वक्त मेरा जा...............

वक्त मेरा जा रहा हॆ

जल रही हॆ तन में ज्वाला
पी हलाहल का मॆ प्याला

एक मरुथल में पडा मॆ, अब न कोई आ रहा हॆ

हर तरफ गहरा अधेरा
प्रभा का लगता न फेरा

आज गहरे धुन्ध से, खुद मन मेरा घबडा रहा हॆ

थका हारा सा मेरा मन
कर रहा हॆ मॊन क्रन्दन

आश का पंछी भी मुझसे,दूर उडता जा रहा हॆ

विक्रम

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

aas ka panghi bhi mujhse dur uda ja raha,gehre bhav bahut achhi kavita.