वह सुनयना थी
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती
और दीवाल के पास बैठकर
अपनी नन्ही उगलियों से, भीती में चित्र बनाती
अनगिनत-अनसमझ, कभी रोती कभी गाती
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
मुझे देख सकुचाई थी
नव-पल्लव सी अपार शोभा लिए,पलक संपुटो में लाज को संजोये
सुहाग के वस्त्रों में सजी,उषा की पहली किरण की तरह, कॉप रही थी
जाने से पहले मागने आयी थी ,वात्सल्य भरा प्यार
जो अभी तक मुझसे पा रही थी
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
दबे पाव,डरी सहमी सी, उस कबूतरी की तरह
जिसके कपोत को बहेलिये ने मार डाला था
संरक्षण विहीन
भयभीत मृगी के समान ,मेरे आगोश में समां गयी थी
सर में पा ,मेरा ममतामईं हाथ
आसुवो के शैलाब से,मेरा वक्षस्थल भिगा गयी थी
सफेद वस्त्रों में उसे देख ,मैं समझ गया था
अग्नि चिता में,वह अपना ,सिंदूर लुटा आयी थी
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
नहीं इस बार दरवाजे पे
दबे पाँव नहीं
कोई आहट नहीं
कोई आँसू नहीं
सफेद चादर से ढकी, मेरे ड्योढी में पडी थी
मैं आतंकित सा, कापते हाथो से, उसके सर से चादर हटाया था
चेहरे पे अंकित थे वे चिन्ह
जो उसने, वासना के, सडे-गले हाथो से पाया था
मैने देखा,उसकी आखों में शिकायत नहीं,स्वीकृति थी
जैसे वह मौन पड़ी कह रही हो
हे पुरूष, तुम हमे
माँ
बेटी
बहन
बीबी
विधवा
और वेश्या बनाते हो
अबला नाम भी तेरा दिया हैं
शायद इसीलिए ,अपने को समझ कर सबल
रात के अँधेरे में,रिश्तो को भूल कर
भूखे भेडिये की तरह
मेरे इस जिस्म को, नोच-नोच खाते हो
क्या कहाँ ,शिक़ायत और तुझसे
पगले, शायद तू भूलता है
मैने वासना पूर्ति की साधन ही नहीं
तेरी जननी भी हूं
और तेरी संतुष्ति ,मेरी पूर्णता की निशानी हैं
मैं सहमा सा पीछे हट गया
उसकी आखों में बसे इस सच को मैं नहीं सह सका
और वापस आ गया ,अपने कमरे में
शायद मैं फिर करूगां इंतजार
किसी सुनयना का
वह सुनयना थी
vikram
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4 टिप्पणियां:
bahut satik sach bayan hua hai vikram ji,nari man ka,bhavnao ka,sahi chitran,uski taklif bhi saaf nazar aati ha.bahut badhai.
sadar mehek
नाली के हर रूप का उसकी पीडा का बडा सुंदर वर्णन। पर मत भूलिये नारी शक्ती भी है ।
Excuse me pl. read nali as nari.
बेनामी नाम की टिप्पणी सम्मानित लेखिका महक जी की हॆ, ई मेल से पोस्ट पर डालते वक्त उनका नाम छूट गया . आशा जी, महक जी हॊसलाअफजाई के लिये धन्यवाद ,आशा जी नारी शक्ति का रूप हॆ सच कहा आपने . सहनशीलता से बडी शक्ति दुनिया मे दूसरी नही हॆ, ऒर वह सिर्फ नारी के पास हॆ. ऒर यही इस कविता के माध्यम से कहने का प्रयास मॆने किया हॆ. सन १९८७ मे घटी नारी उत्पीडन की एक घटना से उत्पन्य पीडा इस कविता के रूप मे बाहर आ गई.
विक्रम
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