द्वन्द एक चल रहा रहा
रक्त नीर बह रहा
कर्म के कराहने से
इक दाधीच ढह रहा
क्यूँ अनंत हों नये,छोड़ कर चले गये
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
देह-द्वीप जल रहा
मोह फिर सिमट रहा
कृष्ण-शंख नाद से
पार्थ हैं सहम रहा
प्रश्न बन चले गये, नेह से बिछुड़ गये
एक बूंद नीर की ,दो कली गुलाब की
काल-खंड थम रहा
टूट कर बिखर रहा
इस गगन विशाल से
प्रश्न कौन कर रहा
नम नयन छलक गये, भीरू-भीत बन गये
एक बूंद नीर की, दो कली गुलाब की
तम अमिट बना रहा
लेख इक मिटा रहा
एक स्याह बूंद से
चित्र फिर बना रहा
तुम कही ठहर गये, नीड से बिछुड़ गए
एक बूंद नीर की दो कली गुलाब की
विधि-विधान रच रहा
मुक्ति द्वार गढ़ रहा
आस्था के द्वार से
लौट कौन आ रहा
सुन्दरम सब शिव हुये, सत्य आहत हुये
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
विक्रम[छोटे भ्राता स्वर्गीय राधवेन्द्र की याद में ]
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2 टिप्पणियां:
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
देह-द्वीप जल रहा
मोह फिर सिमट रहा
कृष्ण-शंख नाद से
पार्थ हैं सहम रहा
beautiful words and feelings
अतिसुन्दर
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