बुधवार, 12 मार्च 2008

मेरी आकांक्षाओं का .....................

मेरी आकांक्षाओ का समुद्र

स्पंदन हीन शांत हैं

गतिहीनता के बोध से ग्रसित

न जाने क्यूँ

कुछ भयाक्रांत हैं

उसमे असीम गहराई हें

पर मैं

नहीं देख पाता हूँ ,अपना प्रतिविम्ब

हां

जब झाकता हूँ

देखता हूँ गहरा अधेरा

मैं पूर्णमासी का भी करता हूँ इंतजार

देख सकू

ज्वार-भाटे से उठा उन्मुक्त यौवन

पर मैं निराश हूँ

मेरे आकाश में कोई चांद सूरज नहीं

कभी सोचता हूँ

जैसा भी हूँ अच्छा हूँ

देखो

जिनके चांद सूरज चमकते हैं

वे भी

अनियंत्रित जार-भाटे के शिकार

गतिवान होने के बाद भी दिशाहीन

अपने ही तटिबन्ध को कर क्षतिग्रस्त

हों गये हैं पाप-बोध से ग्रसित

नहीं मैं ऐसा नहीं

मैं ऐसा नहीं

...........

विक्रम

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