रविवार, 31 अगस्त 2008
जीवन का सफर चलता ही रहें ,चलना हैं इसका काम
कहीं तेरे नाम ,कहीं मेरे नाम ,कहीं और किसी के नाम
हर राही की अपनी राहे, हैं अपनी अलग पहचान
मंजिल अपनी ख़ुद ही चुनते, पर डगर बडी अनजान
खो जाती सारी पहचाने, जो किया कहीं विश्राम
कहीं तेरे नाम ,कहीं मेरे नाम ,कहीं और किसी के नाम
इन राहों में मिलते रहते,कुछ अपने कुछ अनजान
हर राही के आखों में सजे कुछ सपने कुछ अरमान
सपनों से सजी इन राहों में, कहीं सुबह हुयी कहीं शाम
कहीं तेरे नाम कहीं मेरे नाम कहीं और किसी के नाम
vikram
बुधवार, 20 अगस्त 2008
दे पिला ये सुर्ख से रंग .............
दे पिला ये सुर्ख से रंग ,शाम के भर जाम में
वो न फिर से माँग बैठे , खूने दिल पैगाम में
जिन्दगी का हॆ वजू, जीने के इस अंदाज में
इक शमां बन कर जले, गर दूसरो की राह में
साज कोई लय नहीं हैं ,लय बसा हर साज में
हर नई सुबहो छिपी हैं ,इक गुजरती रात में
हैं मुझे भी देखना, अब इस सितम के दौर में
इस गमें-सागर में मिलता हैं सुकूँ किस छोर में
इम्तिहां की इन्तिहां के, हर हदों के पार में
मैं मिलूंगा फिर से उनसे, बस इसी हालत में
vikram
मंगलवार, 19 अगस्त 2008
अर्थ हीन.....
मै तोडना नही चाहता
शायद इसी बहाने
मै तुम्हे छोडना नही चाहता
विक्रम
सोमवार, 18 अगस्त 2008
आज चली कुछ.......................
बातों पर हैं जाएँ बातें
हँसती हुयी सुनी हैं बातें
बहकी हुयी सुनी हैं बातें
बच्चो की क्या प्यारी बातें
इनकी बातें ,उनकी बातें
होती हैं कुछ अपनी बातें
दिल को छू जाती हैं बातें
आसूँ में कुछ डूबी बातें
क्यूँ करते हो ज्यादा बातें
आज............................
होती बड़ी मृदुल कुछ बातें
कर्कश भी होतीं है बातें
प्रेम कराती हैं ,ये बातें
बातें बंद कराती बातें
सहनी पड़ती हैं कुछ बातें
सही नहीं जातीं कुछ बातें
उचे स्वर में होतीं बातें
चुपके-चुपके होतीं बातें
आज...........................
नयनों में जब होतीं बातें
क्या समझोगे ऎसी बातें
हर भाषा में होतीं बातें
कुछ सच्ची कुछ झूठी बातें
हार की बातें जीत की बातें
गीत और संगीत की बातें
ज्ञान और विज्ञान की बातें
हर मौसम पर करते बातें
आज............................
कभी वीरता की हों बातें
क्रोध भरी भी होतीं बातें
डींग हाकती हैं कुछ बातें
डरी और सहमी सी बातें
ध्रणा दर्द पर भी हों बातें
जन्म म्रत्यु पर होती बातें
बंद करो भी ऐसी बातें
अब न सुनी जाती ये बातें
आज.........................
स्वार्थ और परमार्थ की बातें
धनी और निर्धन की बातें
ताकतवर निर्बल की बातें
भूखे प्यासों की भी बातें
सुनने जाते हैं कुछ बातें
सुनकर न सुनते कुछ बातें
कुछ होतीं है ऐसी बातें
कह न कही सकते वे बातें
आज...............................
ममता मयी हैं माँ की बातें
शिक्षा देती गुरु की बातें
अच्छी और बुरी कुछ बातें
है गंभीर बहुत सी बातें
कभी कभी भरमाती बातें
है इतिहास बनाती बातें
युगों युगों तक चलती बातें
कुछ होतीं हैं ऎसी बातें
आज.............................
किसके दम पर इतनी बातें
इस पर भी हो जायें बातें
दिल की धड़कन से हैं बातें
सासों पर निर्भर हैं बातें
जब तक करती हैं ये बातें
तब तक है अपनी भी बातें
अभी बहुत अनकही हैं बातें
सोच समझ कर करना बातें
आज...............................
vikram
सोमवार, 28 जुलाई 2008
पीर को भी प्यार से.....................
कारवाँ बन जायेगा,चलते चले बस जाइये
मंजिले ख़ुद ही कहेगी,स्वागतम् हैं आइये
पीर को भी प्यार से,वेइंतिहाँ सहलाइये
आशिकी में डूबते,उसको भी अपने पाइये
हैं नजारे ही नहीं,काफी समझ भी जाइये
देखने वाले के नजरों,में जुनूँ भी चाहिये
बुत नहीं कोई फरिश्ते,वे वजह मत जाइये
रो रहे मासूम को,रुक कर ज़रा दुलराइये
टूटती उम्मीद पे,हसते हुए बस आइये
अपने पहलू में नई,खुसियां मचलते पाइये
विक्रम
रविवार, 27 जुलाई 2008
इन्हें भूलने.............
तन्हाई में
अधरों पर अधर की छुवन
गर्म सासों की तपन
और एक दीर्ध आलिगन का एहसास
होता तो होगा
बीता कल कभी कभी
चंचल भौरे की तरह
मन की कली पर मडराता तो होगा
किसी न किसी शाम
डूबते सूरज को देख
मचलती कलाइयो को छुडा कर
घर की चौखट पर आना याद तो आता होगा
मुझे तो भुला दोगी
पर सच कहना
क्या
इन्हें भूलने का ,मन करता होगा
शनिवार, 26 जुलाई 2008
कितना कठिन मिलन हैं साथी .........
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
वह पागल थी ...............
वह पागल थी ...............
सोमवार, 21 जुलाई 2008
साथी अब न रहा जाता है
कैसा ये एकाकी पन हैं
मौन बना मेरा जीवन है
निर्जन राहों में तेरे बिन, मुझसे नहीं चला जाता है
नयन नहीं मेरे सोते हैं
देख सितारे भी रोते हैं
चँन्दा भी हर रात यहां से, कुछ उदास होकर जाता है
मन को फिर भी बहलाता हूँ
बिन स्वर के ही मैं गाता हूँ
बिन पंखो का कोई पखेरू,आसमान में उड़ पाता है
vikram
रविवार, 20 जुलाई 2008
आज रात कुछ थमी-थमी सी
आज फिर कुछ खो रहा हूँ ..
बडप्पन क्या होता हॆ, वह मुझे समझा गयी
बडप्पन क्या होता हॆ, वह मुझे समझा गयी
उसे लोग कगदी कह कर बुलाते हॆ। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में पायी जाने वाली भिम्मा जाति से वह संबध रखती है । यह जाति परम्परागत आदिवासी लोक गीतों का गायन कर अपना जीविकापार्जन करती है। समय के साथ इनमे भी काफी बदलाव आ चुका है ,और धीरे धीरे समाज की मुख्य धरा से जुड़ते जा रहे है। हां मै कगदी के बारे में बता रहा था । बीस वर्ष पहले की बात हॆ ,उस समय कगदी अपने जीवन के करीब बाईस बसंत पार कर चुकी थी। सुंदर कद काठी के अलावा ईश्वर ने उसे गजब की आवाज प्रदान की थी। जब वह गाती समां बन जाता। ग्राम प्रधान होने के कारण ये लोग अपनी समस्याओं को लेकर मेरे पास आते रहते थे। एक दिन मेरे परचित रमजान के साथ राजेश नामक पशु व्यापारी मेरे आस आया । वह काफी परेशान लग रहा था । रमजान ने मुझे बताया की कगदी इन्हे परेशान कर रही है,अपनी नव जात बच्ची का पिता इन्हे बतला रही है। राजेश ने मुझसे कहा कि 'ठाकुर साहब आप उसे समझाइये मेरा उसके साथ कभी ऐसा सम्बन्ध नही रहा है,सिर्फ पॆसो के लालच में आकर वह ऎसा कर रही है, मॆ एक इज्जतदार आदमी हू उसकी इस हरकत से मेरी बहुत बदनामी होगी'। मॆने कगदी को उसकी बच्ची के साथ बुलवाया। अपनी दो माह की बच्ची को लेकर वह आयी। बच्ची को उसने आचल से ढक रखा था। मैने कगदी से नवजात कन्या का चेहरा दिखाने के लिए कहा। बच्ची को मॆ देखता ही रह गया , हू ब हू राजेश की तरह। मॆने उससे पूछा ,ये तुम्हारी संतान नही है? वह जवाब नही दे पाया,बस गिडगिडाते हुए बोला 'मेरी इज्जत बचा लीजिये जो कहेगे मॆ पैसा देने को तैयार हू। मेरे क्रोध की सीमा न रही,हाथ उठते उठते रह गया । मॆने उससे पूछा क्या यही तुम्हारा बड़प्पन है,क्या इस लड़की की कोई इज्जत नही है। अपने सम्मान को समाज व परिवार के नजरो में बचाने के लिए इसकी आबरू की कीमत लगा रहे हो । इस मासूम लड़की के बारे में सोचो ,है तो तुम्हारा ही खून। उसने बच्ची को देखा ,आखे डबडबा गई । कगदी की गोद से लड़की को उठा कर अपने सीने से लगा लिया। राजेश ने मुझसे कहा कि मॆ इसे पत्नी का दर्जा दूगा। कगदी ने उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया। उसने मुझसे कहा कि साहब मॆने यह बात किसी से नही कही ,ये ख़ुद मेरे परिवार वालो से बोला था कि शादी करके मुझे अपने साथ ले जायेगा पर इसने मुझे ही दोषी बना दिया । आज सुबह लड़की व मेरे लिये कपडे ले कर गया था, ऒर अब कह रहा हॆ कि मेरी ऒलाद ही नही हॆ। मुझे इससे कोई पॆसा नही लेना मॆ अपनी बिटिया को पाल लूगी। ऒर उसने जो कहा वह करके दिखा दिया.
कुछ समय के पश्चात उसने अपने ही जाति के युवक से शादी कर ली। अपनी लडकी को उसने पढाया लिखाया । अभी हाल ही में उसकी शादी भी कर दी,पर उसने राजेश से कोई सहायता नही ली। आज ही कुछ कार्य बस अपने पति के साथ मेरे पास आयी । लडकी की शादी ,साथ ही तीन ऒर बच्चो की जिमेदारी के कारण आर्थिक परेशानी से गुजर रही हॆ। मॆने उससे पूछा कि उस समय तुमने राजेश से अपना हक क्यूं नही लिया । मेरे इस प्रश्न पर वह कुछ देर सोचती रही। फिर बडे सहजभाव से बोली क्या करती साहब गलती तो हम दोनो की थी, उसकी भी बदनामी होती ,जो किस्मत मे लिखा हॆ वही होता हॆ।
बडप्पन क्या होता हॆ,वह मुझे समझा गयी।
vkram
मंगलवार, 15 जुलाई 2008
देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा
देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा
आजादी के बाद विकास की नई उचाईयो को छूने व विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश का दर्जा पाने के बाद भी हम समान न्याय व्यवस्था के आधार पर एक भय मुक्त समाज का निर्माण करने में सफल नही हुये है। पुत्र द्वारा प्रताडित दम्पति को थाना प्रभारी द्वारा यह कहा जाता है कि " जो बोया था वही काट रहे हो,शिकायत करोगे ,वह बंद हो जायेगा। बाहर निकलेगा, तो काट डालेगा"। जिनसे सहायता की उम्मीद,उनसे यह उत्तर । प्रश्न उठता है कहा जायें ऐसे लोग। यह कोई पहला वाकिया नही है। रोज ऐसे प्रसंग देखने, सुनने,पढ़ने को मिल जाते है। अभी हाल ही में छत्तीसगढ़ के नक्सली प्रभावित क्षेत्र में जाना हुआ। रायपुर पहुचते-पहुचते शाम हो गई .मेरे ड्राइवर ने रात्री में आगे न चलने की सलाह दी। जाना जरूरी था अत: यात्रा स्थगित नही की ,और सुबह होते-होते सुकमा पहुच गये।मन में जो भय था वैसा कोई वातावरण वहा देखने को नही मिला,जैसा टीवी व समाचार पत्रों में देखता या पढ़ता आया था। वहा के लोगो ने बताया कि नक्सलियों की लड़ाई सिर्फ सरकार से है,आम लोगो से नही। क्या सरकार में आम लोगो की सहभागिता नही या सरकार आम लोगो की नही ? कुछ वाकिये भी सुनने को मिले। एक आदमी को अपनी जमीन का पट्टा नही मिल पा रहा था उसने नक्सलियों से शिकायत की ,तीन दिन में पटवारी पट्टा घर में पंहुचा गया। जो काम हमारे प्रशासन को करना चाहिए वह नक्सली कर रहे है। समझ में नही आया कि नक्सलियों की सराहना करू या देश की प्रशासनिक व्यवस्था को कोसू। नक्सली तरीके से भी व्यवस्थित सभ्य समाज की स्थापना नही की जा सकती। लेकिन यह भी सच है कि दोष पूर्ण राजनीति से ही ऎसे हालात पैदा हुये हॆ। वैसे हो सकता है सभी मेरी बात से सहमत न हो ,पर मुझे लगता है कि राजनीत से देश के बुद्धिजीवियों का पलायन भी इसका बहुत बड़ा कारण रहा है। आजादी के बाद शिक्षा के अस्तर मे काफी सुधार आया,पर बुद्धिजीवी समाज का निर्माण नही हुआ। पहले का आदमी अशिक्षित जरूर था,पर था बुद्धिजीवी। अच्छे बुरे की पहचान थी उसको । आज का आदमी शिक्षित जरूर है, पर है शरीरजीवी, स्वहित के लिए सही-ग़लत के भेद को नकारता हुआ। समय रहते लोग सचेत नही हुये और सामाजिक,राजनैतिक,आर्थिक आधार पर इसके निदान के प्रयास नही किये गये,तो वह दिन भी दूर नही, जब देश अव्यवस्था के भयानक चक्रवात से गुजर रहा होगा ।
विक्रम
मैं जीवन का बोधि-सत्व क्याँ खो बैठा हूँ
या जीवन के सार-तत्व में आ बैठा हूँ
मैं अनंत की नीहारिका में अब क्या ढूढूँ
स्वंम पल्लवित सम्बोधन में खो बैठा हूँ
राग और अनुराग लिये मैं जी लेता हूँ
जीवन का यह जहर निरंतर पी लेता हूँ
सत्यहीन क्या सृजन कभी भी संभव होगा
आरोपित जब क्रिया कर्म को दूढ़ हूँ
दंड लिए मैं सहभागी को दूढ़ रहा हूँ
इसी क्रिया में अपनों से ही रूठ रहा हूँ
मैं भुजंग की फुफकारो में रच बस बस करके
मलय पवन की शीतलता को खोज रहा हूँ
इति जीवन अध्याय निकट मैं समझ रहा हूँ
न जाने क्यूँ प्रष्ठ नये मैं जोड़ रहा हूँ
कठपुतली बस नचे डोर ये छोड़ न पाये
इस सच से मैं नहीं स्वयं को जोड़ रहा हूँ
vikram
दर्द को दिल में उतर जाने दो
आज उनको भी कहर ढाने दो
रात हर चाँद से होती नहीं मसरुफे-सुखन
स्याह रंगो के नजारे भी नजर आने दो
एक अनजानी सी तनहाई, सदा रहती है
आज महफिल में उसे नज्म कोई गाने दो
जिनने दरियाओं के मंजर ही नहीं देखे हैं
उन सफीनो पे-भी अफसोस जरा करने दो
कोई वादे को निभा दे यहाँ ऐसा तो नहीं
सर्द वादों को कोई राह नई चुनने दो
चंद कुछ राज यहाँ यूँ ही दफन होते नहीं
आज अपना ही जनाजा मुझे ले जाने दो
vikram
बुधवार, 18 जून 2008
ओ मधुमास मेरे जीवन के ......
रविवार, 15 जून 2008
जीवन जीना ही पडता हैं ............
जीवन जीना ही पड़ता हैं
छल गया कोई, अपना बन के
वह चला गया, सपना बन के
रिश्तो की भूल-भुलैया में, चल कर जीना ही पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैं
आशा के पंख ,लगा करके
कुछ हद तक सच, झुठला करके
गैरों पे मढ़ कर दोष यहाँ, ख़ुद को छलना भी पड़ता हैं
जीवन जीना ही पड़ता हैं
इस भरी दुपहरी से ,तप के
पल शांत निशा के, पा करके
तृष्णा से उपजे घावों को, सहला कर रोना पड़ता हैं
विक्रम
रविवार, 8 जून 2008
क्या भूलूं क्या याद करूं मॆ.........
अब कैसा परिताप करूं मैं
या कोरा संलाप करूं मै
नील गगन का वासी होकर, कहाँ समंदर आज रचूँ मैं
खुशियों की झोली में छुप मैं
पीडा की क्रीडा में रच मैं
कर अनंत की चाह, ह्रदय को पशुवत आज बना बैठा मै
सच का सत्य समझ बैठा मै
अपने को ही खो बैठा मै
बिछुडन के पथ मे क्या ढूढूँ, सपनों की डोली में चढ़ मै
विक्रम
शुक्रवार, 6 जून 2008
वक्त ने दिया शिला..................
आज तो बस इतना ही कह सकता हूँ, कि
वक्त ने दिया शिला, कारवां बिछुड़ गया
आँधिया गुजर गयी, बागवां उजड़ गया।
किसान सम्मेलन की कुछ झलाकिया, चित्रों के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
मैं व मा.अजय सिंह
मेरे द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्य अथित मध्य प्रदेश काग्रेस चुनाव अभियान समित के अध्यक्ष मा. अजय सिंह राहुल थे । कार्क्रम में म.प.काग्रेस के उपाध्यक्ष विसाहू लाल सिंह व अन्य वरिष्ठ काग्रेसी नेता मॊजूद थे।
विक्रम सिंह
सभा मे उपस्थित जन समुदाय
सोमवार, 12 मई 2008
क्यूँ चुप हो कुछ बोलो श्वेता...
क्यूँचुप हो कुछ बोलो श्वेता
मौंन बनी क्यूँमुखरित श्वेता
क्षित की भी तुम सुन्दर-आभा
नील-गगन की हो परिभाषा
है पावक तुमसे ही शोभित
जल की हो तुम ही अभिलाषा
है समीर तुमसे ही चंचल, द्रुपद-सुता सी हो न श्वेता
महाशून्य से उद्दगम करती
दिग्ग-विहीन होकर हो बहती
सरिता महा-मौन की कैसी
हो अरूप रूपों को रचती
मौंन मुखर जीवन -छन्दो में, बस तुम ही होती हो श्वेता
इक कल को कल्पना बनाती
इक कल को जल्पना बनाती
वर्त्तमान भ्रम की परछाई
स्वप्न-छालित जागरण दिखाती
काल-प्रबल की हर स्वरूप की ,जननी क्या तुम हीं हो श्वेता
शब्द एक पर अर्थ कई है
डोर एक पर छोर नहीं है
जीवन मरण विलय कर जाते
रंग हीन के रंग कई है
हो अनंत का अंत समेटे, फिर भी अंत हीन हो श्वेता
है खुद से संलाप तुम्हारा
पंच-तत्व का गीत ये न्यारा
है अखंड आशेष प्रभा-मय
मौंन स्वयम्भू ब्रम्ह तुम्हारा
हो अद्रश्य में द्रश्य, द्रष्टि से फिर भी तुम ओझल हो श्वेता
विक्रम
मंगलवार, 6 मई 2008
एक उदासी इन्ही उनीदीं .पलकों के कर नाम
मैनें आज बिता डाली फिर,जीवन की इक शाम
रजनी का तम रवि को तकता
हौले- हौले दर्द सिमटता
एक करूण शाश्वत जल-धरा,है नयनो के नाम
बिन समझे जीवन की भाषा
की थी बड़ी-बड़ी प्रत्यासा
कितनी लघु अंजली हमारी, आई न कुछ काम
है असाध्य जीवन की वीणा
बन साधक पाई यह पीड़ा
सूनी- साझ न जाने कब आ, देगी इसे विराम
शनिवार, 3 मई 2008
ओस जब बन बूँद बहती, पात का कम्पन मे छा रहा है
नीर का देखा रुदन किसने यहां पे ,पीर वो भी संग ले के जा रहा है
लोग जो हैं अब तलक मुझसे मिले ,शब्द से रिश्तो में अंतर आ रहा है
अर्थ अपने जिन्दगी का ढूँढ़ने में, व्यर्थ ही जीवन यहाँ पे जा रहा है
इन उनीदी आँख के जब स्वप्न टूटे,दर्द में सुख बोध छिपता जा रहा है
तोड़ कर जब दायरे आगे बढ़ा,शून्य में पथ ज्ञान छिनता जा रहा है
प्रश्न बनके कल तलक था सामने,आज वो उत्तर मुझे समझा रहा है
अब अधेरी रात में भी दूर के,दीप का जलना ह्रदय को भा रहा है
vikram
बुधवार, 30 अप्रैल 2008
साथी बैठो कुछ मत बोलो
रविवार, 27 अप्रैल 2008
वह सुनयना थी ...............
कभी चोरी-चोरी मेरे कमरे मे आती
नटखट बदमाश
मेरी पेन्सिले़ उठा ले जाती
और दीवाल के पास बैठकर
अपनी नन्ही उगलियों से, भीती में चित्र बनाती
अनगिनत-अनसमझ, कभी रोती कभी गाती
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
मुझे देख सकुचाई थी
नव-पल्लव सी अपार शोभा लिए,पलक संपुटो में लाज को संजोये
सुहाग के वस्त्रों में सजी,उषा की पहली किरण की तरह, कॉप रही थी
जाने से पहले मागने आयी थी ,वात्सल्य भरा प्यार
जो अभी तक मुझसे पा रही थी
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
दबे पाव,डरी सहमी सी, उस कबूतरी की तरह
जिसके कपोत को बहेलिये ने मार डाला था
संरक्षण विहीन
भयभीत मृगी के समान ,मेरे आगोश में समां गयी थी
सर में पा ,मेरा ममतामईं हाथ
आसुवो के शैलाब से,मेरा वक्षस्थल भिगा गयी थी
सफेद वस्त्रों में उसे देख ,मैं समझ गया था
अग्नि चिता में,वह अपना ,सिंदूर लुटा आयी थी
वह फिर आयी थी मेरे कमरे में
नहीं इस बार दरवाजे पे
दबे पाँव नहीं
कोई आहट नहीं
कोई आँसू नहीं
सफेद चादर से ढकी, मेरे ड्योढी में पडी थी
मैं आतंकित सा, कापते हाथो से, उसके सर से चादर हटाया था
चेहरे पे अंकित थे वे चिन्ह
जो उसने, वासना के, सडे-गले हाथो से पाया था
मैने देखा,उसकी आखों में शिकायत नहीं,स्वीकृति थी
जैसे वह मौन पड़ी कह रही हो
हे पुरूष, तुम हमे
माँ
बेटी
बहन
बीबी
विधवा
और वेश्या बनाते हो
अबला नाम भी तेरा दिया हैं
शायद इसीलिए ,अपने को समझ कर सबल
रात के अँधेरे में,रिश्तो को भूल कर
भूखे भेडिये की तरह
मेरे इस जिस्म को, नोच-नोच खाते हो
क्या कहाँ ,शिक़ायत और तुझसे
पगले, शायद तू भूलता है
मैने वासना पूर्ति की साधन ही नहीं
तेरी जननी भी हूं
और तेरी संतुष्ति ,मेरी पूर्णता की निशानी हैं
मैं सहमा सा पीछे हट गया
उसकी आखों में बसे इस सच को मैं नहीं सह सका
और वापस आ गया ,अपने कमरे में
शायद मैं फिर करूगां इंतजार
किसी सुनयना का
वह सुनयना थी
vikram
शुक्रवार, 25 अप्रैल 2008
कितनी खुशियाँ कितने ही गम जीवन में, संजोया
कुछ यादों की खातिर मैं तो ,नही रात भर सोया
पल भर का था साथ, बनी पर लंबी एक कहानी
अंजाना वह कौन ,सदा करता मुझसे मनमानी
पाने की चाहत मे मैंने , खुद को कितना खोया
कुछ यादों ...................................................
पहचानीं सी दस्तक भी लगती कितनी अनजानी
जाने-अनजानें हर रिश्ते होते हैं बेमानीं
अंक भरी खुशियाँ जब खोयीं , मैं कितना था रोया
कुछ यादों ..........................................................
दर्द भरे एहसासों में , होती मृदुता पहचानीं
खुशियाँ भी सौदाई पन की होतीं हैं दीवानी
पल -भर मे खो गया यहां सब , दर्द नही ये खोया
कुछ यादों की खातिर मैं तो , नहीं रात भर सोया
vikram
गुरुवार, 24 अप्रैल 2008
मेरे जीवन में जब भी, अधियारे पल हैं आये
मैने उनमे ही हरदम, उजियारे पथ हैं पाये
कष्टों से जब गुजरे, तब सुख क्या होता है जाना
रिश्ते टूटे तब मैने , संबंधो को पहचाना
स्वप्न बहुत सुन्दर देखे, साकार नहीं कर पाये
मेरे.................................................................
घोर निराशा हुयी तो, आशा ही जीवन है माना
ठोकर खाई तब मैने , क्या पीर पराई जाना
संवेदना के स्वर सदैव है ,व्यथित ह्रदय को भाये
मेरे..................................................................
मृग- तृष्णा सा स्वार्थ किया परमार्थ ,तभी मन माना
प्रेम त्याग में शांति , रहा न इससे मैं अनजाना
श्रद्धा में है शक्ति तभी , पत्थर ईश्वर बन जायें
मेरे...........................................................
vikram
मंगलवार, 22 अप्रैल 2008
मेरे हालात पर भी न, इतना रहम खाओ तुम
मेरे हालात पर भी न इतना रहम खाओ तुम
कि मुझको शर्म आजाये, दो आँसू भी गिराने में
ये गुलशन मैने सीचा था,गुलों को तुमने लूटा हैं
इन काटों को तो रहने दो,मेरा दामन चुभाने को
ये गिरना गिर के उठना, फिर से चलना खूब सीखा हैं
नजर में अपनों के गिरना,नहीं बर्दाश्त कर पाये
ये माना मैं हूँ जज्बाती,मगर इतना नहीं यारा
की सच और सब्र के दामन से,अपने को जुदा कर लूँ
vikram
बड़ा कौन ............
होलिका उत्सव का समय था,भीखू नाम का व्यक्ति अपनी उन्नीस वर्षीय बेटी मीनू के साथ मेरे पास आया.वह मेरे यहाँ से 70कि. मी. दूर स्थित ग्राम का निवासी था।उसने मुझे अपने ग्राम के ठाकुर साहब का पत्र दिया ,जिसमे उसे सहयोग देने की बात कही गयी थी। पूछने पर पता चला कि मेरे ग्राम का ही युवक उसे लिवा लाया था, अब वह उसे रखने को तैयार नही है,मैने उसे बुलाकर पूछा तो उसने बताया कि इसका आचरण सही नही है , मीनू ने बताया कि यह शराब पीकर मारता है।काफी समझाने के बाद दोनो साथ रहने को तैयार हो गये।
कुछ माह बाद उनमे फिर झगडे होने लगे। गाव वालो ने भी मीनू को दोषी बताया। एक दिन मै कार्य वस घर से बाहर जा रहा था,वह फिर शिकायत लेकर आ गयी, उस दिन मैने उसे बहुत डाटा,और दुबारा न आने की हिदायत भी दी। शाम को जब मै घर वापस आया तो वह घर के आँगन में बैठी हुय़ी थी,
मै उसे कुछ बोलता, मेरी धर्मपत्नी ने कहा कि इसे मैने रोका है. कारण पूछने पर जो बताया वह काफी शर्मनाक और पीडा पहुचाने वाली बात थी। जब मीनू क़क्षा पाचवी की छात्रा थी उसी के स्कूल के शिक्षक ने उसके साथ शारीरिक संबंध बनाया । शिक्षक उन्ही ठाकुर साहब का भाई था, जिनका पत्र लेकर वह मेरे पास आई थीं। अब बदनामी के डर से वे लोग उसे गाव में नही रहने दे रहे थे. पहले मुझे उसकी बात पर यकीन नही हुआ, साथ ही उन ठाकुर साहब से मेरे सामाजिक ,राजनैतिक संबंध भी थे। लेकिन मेरी पत्नी कुछ
सुनने को तैयार ही नही थीं ,उन्होने यहाँ तक कह डाला कि अगर इसे न्याय नही दिलाया तो अब किसी की भी पंचायत आप नही करेगे। मैनें हकीकत जानने के लिए मीनू के भाई व बाप को बुलवाया। इस बात की जानकारी शिक्षक व उनके भाई को भी हो गयी और वे भी आ गए। उनका कहना था कि ये लड़की झूठ बोल रही है। उनकी बात का समर्थन मीनू के घर वाले भी करने लगे। मैनें सच्चाई जानने के लिए दोनो को आमने सामने किया, मीनू से नजर मिलते ही शिक्षक का चेहरा शर्म के मारे झुक गया और माफी मागते हुए मीनू के पैरों में गिर पडा, मीनू रोती हुयी पीछे हट गई और मुझसे बोली" दाऊ साहब जाने दीजिये ,इतने बडे आदमी मेरे पैरों में गिरे अच्छा नही लगता"। कौन बड़ा ,ये प्रश्न और उत्तर लगता हैं आज भी मेरे सामने खडे हुये हैं।
विक्रम
[वास्तविक नाम बदल दिए गए हैं] [विक्रम२ , पूर्व में पाकाषित]
रविवार, 20 अप्रैल 2008
सच नही कोई परिंदा, जाल मे फँस जाएगा
कर हलाले-पाक उसको चाक कर खा जाएगा
रख जुबाँ फिर भी यहाँ तू , बे-जुबाँ हो जाएगा
देखकर शमसीर यदि तू , सच नहीं कह पायेगा
दिल्लगी में दिलकशी हो , दिल कहाँ फिर जाएगा
प्यार और नफरत में यारा , फर्क क्या रह जाएगा
प्यार अपने इम्तिहाँ के , दौर से बच जायेगा
वक़्त की तारीक मे , कैसे पढा वह जायेगा
vikram
गुरुवार, 17 अप्रैल 2008
हम आप की राहों में .................
क्यूँ आप नहीं मेरे , जज्बात समझते हैं
आखों की छुवन दिल में,सिहरन सी जगा जायें
लवरेज वो लब तेरे, मदहोश बना जायें
पहलू में कभी आवो ,हम भी तो तरसते हैं
हम.............................................................
हम दिल की कहीं दिल से,कहने हैं यहाँ आये
यूँ आप न संग-दिल हों, जायें तो कहाँ जायें
चाहत भरी नजरों को,गुल ही तो समझते हैं
हम..........................................................
हर एक इबादत में ,बस नाम तेरा आये
मजमून भले कुछ हों,पैगाम तेरा लाये
कुदरत का करिश्मा हों,हम भी तो समझते हैं
हम.........................................................
विक्रम
मंगलवार, 15 अप्रैल 2008
दर्द को दिल में उतर जाने दो
आज उनको भी कहर ढाने दो
रात हर चाँद से होती नहीं मसरुफे-सुखन
स्याह रंगो के नजारे भी नजर आने दो
एक अनजानी सी तनहाई, सदा रहती है
आज महफिल में उसे नज्म कोई गाने दो
जिनने दरियाओं के मंजर ही नहीं देखे हैं
उन सफीनो पे-भी अफसोस जरा करने दो
कोई वादे को निभा दे यहाँ ऐसा तो नहीं
सर्द वादों को कोई राह नई चुनने दो
चंद कुछ राज यहाँ यूँ ही दफन होते नहीं
आज अपना ही जनाजा मुझे ले जाने दो
विक्रम
रविवार, 6 अप्रैल 2008
दर्दों के साए में भी हम ,खेलेगे रंगोली
तेरी खुशियां मेरे गम हों ,जैसे दो हमजोली
याद बहुत आये वो तेरा ,देर तलक बतियाना
साझ ढले छुप छुप कर तेरा ,चुपके से घर जाना
आयेगें न अब वे लम्हें , न रातें अलबेली
दर्दो ..........................................................
तुमने तो अपनी कह डाली, कौन सुने अब मेरी
संग बीते जो पल उनकी भी ,क्या हो सकती चोरी
उल्फत मेरी बन जायेगी ,तेरे लिए पहेली
दर्दों........................................................
मेरी तो आदत है ,अपनी धुन में चलते जाना
आज नहीं तो कल तुमको भी ,पीछे मेरे आना
यादें तेरी पल-छिन आकर, करती हैं अठखेली
दर्दों.................................................................
vikram
ऐ जिंदगी तुझे क्यूँ ..........
ऐ जिन्दगी तुझे क्यूँ ,मैने वफा था माना
ऐसा मिला हैं साहिल, ख़ुद से हुआ बेगाना
गमे-हिज्र से गुजर कर ,जिसकी तलाश की थी
नूरे-वफा से मैने ,जिसकी मिसाल दी थी
सरे वज्म आज उसने , मुझको नहीं पहचाना
ऐ ............................................................
उन्हें क्या कहें बता तू, जो दुआ दे कत्ल करते
राहों को करके रोशन, नजरो से नूर लेते
हैं उनकी ये अदा जी,मुझे जान से हैं जाना
ऐ.........................................................
कल जाने मय कदे में,किसने उन्हें पिलाई
लत उनकी बन गई हैं,मेरी जान पे बन आई
खूने जिगर से मेरे, उन्हें भरने दो पैमाना
ऐ.......................................................
vikram
तिमिर बहुत गहरा होता हैं
तिमिर बहुत गहरा होता है
रात चाद जब नभ मे खोता
तारो की झुरुमुट मे सोता
मेरी भी बाहो मे कोई,अनजाना सा भय होताहै
यादो के जब दीप जलाता
छुप गोदी मे मॆ सो जाता ,शून्य नही देखो आता है
कही नीद की मदिरा पाता
पी उसको हर आश भुलाता
रक्त नयन की जल धारा को, जग कैसे कविता कहता है
विक्रम
सोमवार, 24 मार्च 2008
बहुत खोया हैं मैने, जिन्दगी को जिन्दगी के वास्ते
बहुत खोया हैं मैने, जिन्दगी को जिन्दगी के वास्ते
मगर पाया नहीं कोई खुशी इस जिन्दगी के वास्ते
भटकता फिर रहा हूँ मैं, यहाँ रिश्तो के जंगल में
न इसको पा सका अब तक,इस दुनिया के समुन्दर में
मेरे हालत पहले से भी बदतर हों गये यारा
बहुत अरसा लगेगा रात से अब सहर होने में
बहुत रोया यहाँ मैं ,आदमी बन आदमी के वास्ते
मगर पाया नहीं ..........................................
हैं काफी वक्त खोया बुत यहाँ अपना बनाने में
नजर में भा सका न ये किसी के इस जमाने में
किया जज्बात के बाजार में सौदा बहुत यारा
कहीं पे रहा गयी कोई कमी इसको सजाने में
बहुत तडफा यहाँ इन्सान बन इंसानियत के वास्ते
मगर पाया नहीं ....................................................
विक्रम
शुक्रवार, 21 मार्च 2008
बुधवार, 19 मार्च 2008
ख्वाब सी यह जिन्दगी ,इस जिन्दगी से क्याँ गिला
क्या मिला रोया यहाँ , और जब हँसा तो क्याँ मिला
जिदगी चलती कहाँ हैं , हसरतों के रास्ते
मौत से इसके यहाँ, कितने करीबी वास्ते
अब यहाँ शिकवा करें क्यूँ ,अपनी ही भूलो से हम
इक अजब से दास्तां लिख दी हैं हमने बा कलम
रो रहें हैं आशियां ,ऐसा दिया उनको शिला
ख्वाब ................................................
महफिलों की याद , तन्हाई में आती हैं सदा
प्यार का एहसास होता, होते हैं जब दिल जुदा
अपनी आवारगी पे रोती हैं, यहाँ देखो फिजा
बरना क्या इस बागवां को , जीत लेती यह खिजां
जिन्दगी को बाट टुकडो , मे सदा खुद को छला
ख्वाब..................................................................
vikram
बुधवार, 12 मार्च 2008
थे जब तक दिल मे तुम मेरे...............
गुलों में खार होते हैं, न तब तक जान पाये थे
मुझे न चाहने का गम , नही इतना सताता हॆ
रकीबों से गले लगना,यही पल-पल रुलाता हॆ
तडफ कर हम इधर रोये, उधर तुम मुस्कुराये थे
गुलो में खार होते हैं, न तब तक जान पाये थे
कोई शिकवा नही फिर भी, मुझे इतना ही कहना हॆ
दुआ के हाथ कातिल थे ,यही गम मुझको सहना हॆ
गमों से इश्क करने की , नही हम सोच पाये थे
गुलो में खार होते हैं , न तब तक जान पाये थे
विक्रम
मेरी आकांक्षाओं का .....................
मेरी आकांक्षाओ का समुद्र
स्पंदन हीन शांत हैं
गतिहीनता के बोध से ग्रसित
न जाने क्यूँ
कुछ भयाक्रांत हैं
उसमे असीम गहराई हें
पर मैं
नहीं देख पाता हूँ ,अपना प्रतिविम्ब
हां
जब झाकता हूँ
देखता हूँ गहरा अधेरा
मैं पूर्णमासी का भी करता हूँ इंतजार
देख सकू
ज्वार-भाटे से उठा उन्मुक्त यौवन
पर मैं निराश हूँ
मेरे आकाश में कोई चांद सूरज नहीं
कभी सोचता हूँ
जैसा भी हूँ अच्छा हूँ
देखो
जिनके चांद सूरज चमकते हैं
वे भी
अनियंत्रित जार-भाटे के शिकार
गतिवान होने के बाद भी दिशाहीन
अपने ही तटिबन्ध को कर क्षतिग्रस्त
हों गये हैं पाप-बोध से ग्रसित
नहीं मैं ऐसा नहीं
मैं ऐसा नहीं
...........
विक्रम
रविवार, 9 मार्च 2008
नहीं क्षणिक प्रिय ध्येय हमारे
नही क्षणिक प्रिय ध्येय हमारे
आशा के विस्तृत प्रदेश में
उत्साहित ह्रद भरा जोश में
जीवन समर सरल हों जायें , यदि प्रिय धर लो नेह हमारे
नहीं क्षणिक प्रिय ध्येय हमारे
उर भय ग्रसित न प्रणय हमारे
फिर क्यूँ चिंतित नयन तुम्हारे
कंचन बदन कनक मद लेकर, आई हों मन द्वार हमारे
नहीं क्षणिक प्रिय ध्येय हमारे
चिर आपेक्षित मिलन हमारा
काल-चक्र भी हमसे हारा
जग जीवन के सभी नियंत्रण, तोड़ बढे पग आज हमारे
नहीं क्षणिक प्रिय ध्येय हमारे
vikramएक मुट्ठी दायरे में ..................
एक मुट्ठी दायरे में ,हैं जो सिमटी जिंदगानी
ख्वाब हैं कितने बड़े,कितनी बड़ी इसकी कहानी
हैं कहीं ममता की मूरत, तो कहीं नफरत की आंधी
रूप हैं कितने ही इसके, जा नहीं सकती ये जानी
तोड़ती हर दायरे, आती हैं इसपे जब जवानी
एक .........................................................
हैं वफा और बेवफा भी ,प्रीत भी हैं पीर भी
ये कहीं मजनू बने तो, ये कहीं पे हीर भी
ये कबीरा ये फकीरा, ये बने मीरा दिवानी
एक .....................................................
हैं कहाँ इसका ठिकाना, आज तक कोई न जाना
पीर संतो ने भी इसको, बस खुदा का नूर माना
हैं सुखनवर के लिये,उल्फत भरी कोई कहानी
एक ...........................................................
विक्रम
शनिवार, 8 मार्च 2008
जीवन की जब शाम यहां पर आयेगी
जीवन की जब शाम यहां पर आयेगी
आ कितना आराम मुझे दी जायेगी
तन्हाई से लड़ते- लड़ते थक जायेगें
जीवन का यह बोझ नहीं ढो पायेगें
ऐसे में वो चुपके से आ जायेगी
आ...........................................
कोई शिकवे कोई न गिले रह जायेगें
बीते कल के अपने बन सपने आयेगें
इन सपनों से वो दूर मुझे ले जायेगी
आ..............................................
बैरन निदिया भी रोज मुझे तरसाती हैं
रह कर के भी पास नहीं ये आती हैं
उसके आते ही आकर मुझे सुलायेगी
आ......................................................
vikram
गीत नया गायेगे..................
न तू न मैं न ये न वो ,संग चलकर
गीत नया गायेगे , हम आज मिलकर
बहार की पुकार हॆ, आजा सथिया
प्यार के लिये ही,मैने दिल दिया लिया
तू से मैं, मैं से तू , आज बन कर
गीत............................................
आज देखो फिर से राझा-हीर मिल गये
नयन के रास्ते दिलो के पीर बह गये
रब किसी को भी जुदा यहाँ न आज कर
गीत................................................
गमों की रात में खुशी का चांद आ गया
फूल बन के देखो कैसे खार खिल गया
दिल से दिल की बात कर आज खुलकर
गीत...................................................
हरी-भरी वादियों में ये खिला चमन
प्यार के लिये मुझे मिला हॆ इक सनम
जिन्दगी को जिन्दगी के नाम लिखकर
गीत....................................................
आइये आसुओं से समुंदर रचे.....
उम्र क्या चीज हैं,रश्म क्या चीज हैं
आशिकी दो दिलो की बड़ी चीज हैं
आइये आसुओं से समुंदर रचें
इश्क में जो करें वो बड़ी चीज हैं
क्यूँ ऐ नजरे खफा मुझसे रहने लगीं
चुपके चुपके मेरी राह ताकने लगीं
आइये इक कशिश बनके दिल मे रहें
दर्दे दिल की तडफ भी बडी चीज हॆ
हम नजर जो हुये,हमसफर न हुये
सौदे दिल के किये फिर मुकर भी गये
राहे-उल्फत मे जिनके कदम न बढे
वो ये कहते हैं दिल भी अजब चीज हैं
अब ये वादे वफा के न रश्मी रहें
दिल यहाँ जो कहें हम वही अब करें
देखिये जिन्दगी ये जफा भी करे
उससे पहले संभलना बडी चीज हैं
विक्रम
चलो आज कुछ नया करें हम
इसी पुराने तन को धर कर
सडे घुने से मन को लेकर
जीवन की अन्तिम बेला मे,आज नया प्रस्थान करे हम
चलो आज कुछ नया करे हम
वही शशंकित आशाये धर
घने पराये पन से डर कर
सासों की इस पगडन्डी से,हट कर कोई राह चुने हम
चलो आज कुछ नया करे हम
तृप्ति कहाँ होती मन गागर
सुख के चाह रही वो सागर
छोड़ इसे इस ही पनघट पर,मरुथल में विश्राम करें हम
चलो आज कुछ नया करें हम
vikram
गुरुवार, 6 मार्च 2008
जीवन का सफर चलता ही रहें चलना हैं इसका काम
जीवन का सफर चलता ही रहें ,चलना हैं इसका काम
कहीं तेरे नाम ,कहीं मेरे नाम ,कहीं और किसी के नाम
हर राही की अपनी राहे, हैं अपनी अलग पहचान
मंजिल अपनी ख़ुद ही चुनते, पर डगर बडी अनजान
खो जाती सारी पहचाने, जो किया कहीं विश्राम
कहीं तेरे नाम ,कहीं मेरे नाम ,कहीं और किसी के नाम
इन राहों में मिलते रहते,कुछ अपने कुछ अनजान
हर राही के आखों में सजे कुछ सपने कुछ अरमान
सपनों से सजी इन राहों में, कहीं सुबह हुयी कहीं शाम
कहीं तेरे नाम कहीं मेरे नाम कहीं और किसी के नाम
vikram
मृग चितवन मे बंधा बंधा सा
मृग चितवन में बंधा बंधा सा
पास नहीं हों मेरे फिर भी ,नयन तुम्हे ही ढूँढ़ रहें हैं
जाने कौन दिशा में तेरी पायल के स्वर गूँज रहें हैं
जागी भूली यादें तेरी
पर मन मेरा डरा-डरा सा
कही पपीहे के स्वर सुनके,जाग पड़े न दर्द हमारे
सच्चाई से मन डरता हैं, पर वह बैठी बाँह पसारे
दो पल मधुर मिलन के
आज लगे तन थका-थका सा
कैसे कहें कौन हों मेरे , सारे सपने टूट गये हें
प्रेम भरे रिश्तो के बन्धन,जाने कैसे छूट गये हैं
कितनी मिली खुशी थी मुझको
पर सब लगता मरा-मरा सा
विक्रम
ऎ काश ऎसा होता यहां पर..........
पाकर खुशी तब दिल ये हमारा,यूँ ही मचल जाता थोड़ा
नयनों के सपने,दिल के दरीचे पे ,आ-आ के जब हैं मचलते
हम भी तुम्हारी यादों में खोकर, तब हैं ज़रा सा बहकते
ऎ नर्गिसी रूप तेरा महक कर,घुलता फिजाओं में थोड़ा
पाकर खुशी तब दिल ये हमारा,यूँ ही मचल जाता थोड़ा
दिल की जुबां से मॆने कही भी,तुमको हॆ जब-जब पुकारा
ऎसा लगा तब सीने मे मेरे ,धडका कही दिल तुम्हारा
नयनों की मदिरा से तेरे बहक कर,ये वक्त थम जाता थोड़ा
पाकर खुशी तब दिल ये हमारा,यूँ ही मचल जाता थोड़ा
vikram
पथिक .........
पथिक
जीवन यात्रा के यौवन काल में
अर्ध-सत्य रिश्तो से उपजे ये प्रश्न
हैं मात्र भावनाओं संस्कारो के बीच के द्वन्द
यह मत भूलो
न तुम पतित हों ,न पतित पावन
तुम पथिक हों
जिसे खोजना हैं
जीवन के कितने ही अनसुलझे, प्रश्नों के उत्तर
देना हैं नये विचारों को जन्म
पूर्व निर्मित
मान्यताओं ,मर्यादाओं के वीच
पहचानना हॆ सत्य
सत्य के असंख्य मुखौटो के बीच
तुम्हारी ये कोशिशे व संघर्ष होगे
माइने जीवन के
vikram
बुधवार, 5 मार्च 2008
अल्ला मेघ दे...........
इक जिन्दगानी दे कोई कहानी दे,कोई कहानी,अल्ला मेघ दे
नयनों के कोर सूखे
आँचल के छोर सूखे
मन के चकोर छूटे
आशा की डोर टूटे
मन को पीर दे नीर दे, नीर दो खारे,अल्ला मेघ दे
तरुवर के पात जैसेमेरे हैं गात वॆसे
कोई पतझड आये
जीवन निधि ले न जायेइसको प्यास दे आश दे ,बोल दो प्यारे, अल्ला मेघ दे
पनघट मे शाम जायें
फिर भी कोई न आये
मेरे अंगना से जाये
इसको रीत दे सीख दे ,गीत दे प्यारे,अल्ला मेघ दे
ममता के दे वो साये
दिल में जो आश जगाये
नन्ही किलकारी भाये
गोदी छुप मुझे सताये
ऎसी हूक दे कूक दे पीक कुंआरे, अल्ला मेघ दे
vikram
मंगलवार, 4 मार्च 2008
बस हम वफाये इश्क में ..........
बस हम वफाये-इश्क में,मिटते चले गये
और वो जफाये-राह में, चलते चले गये
मैं न नसीब उनका, कभी बन सका यहाँ
वे ही नसीबे-गम मुझे देकर चले गये
इस इश्के मय-कशी के जुनू में मिला ही क्याँ
लवरेज वो पैमाने भी,छूटे छलक गये
अब तो दुआये बोल भी मिलते नहीं यहाँ
कुछ ऐसी बद्दुआ मुझे देकर चले गये
उल्फत में उनके यारो फंना भी करू तो क्या
दामन से मेरे दिल को जुदा कर चले गये
विक्रम
डूबा सूरज साँझ हों गयी
डूबा सूरज साँझ हों गई
पंक्षी नीडो में जा पहुचे
सुन बच्चो की ची ची चे चे
वे भूले दिन के कष्ट सभी , यह स्वर लहरी सुख धाम दे गयी
डूबा सूरज साँझ हों गयी
जो पंथी राहों में होगे
जल्दी जल्दी चलते होगे
प्रिय जन चिंतित हों जायेगे , यदि पथ में उनको रात हों गयी
डूबा सूरज साँझ हों गयी
हर दिन जब ये पल आता हैं
मन में जगती इक आशा हैं
शायद कोई मुझसे कह दे, घर आओ देखो शाम हों गयी
डूबा सूरज साँझ हों गयी
vikram
सोमवार, 3 मार्च 2008
द्वन्द एक चल रहा..........
रक्त नीर बह रहा
कर्म के कराहने से
इक दाधीच ढह रहा
क्यूँ अनंत हों नये,छोड़ कर चले गये
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
देह-द्वीप जल रहा
मोह फिर सिमट रहा
कृष्ण-शंख नाद से
पार्थ हैं सहम रहा
प्रश्न बन चले गये, नेह से बिछुड़ गये
एक बूंद नीर की ,दो कली गुलाब की
काल-खंड थम रहा
टूट कर बिखर रहा
इस गगन विशाल से
प्रश्न कौन कर रहा
नम नयन छलक गये, भीरू-भीत बन गये
एक बूंद नीर की, दो कली गुलाब की
तम अमिट बना रहा
लेख इक मिटा रहा
एक स्याह बूंद से
चित्र फिर बना रहा
तुम कही ठहर गये, नीड से बिछुड़ गए
एक बूंद नीर की दो कली गुलाब की
विधि-विधान रच रहा
मुक्ति द्वार गढ़ रहा
आस्था के द्वार से
लौट कौन आ रहा
सुन्दरम सब शिव हुये, सत्य आहत हुये
एक बूंद नीर की , दो कली गुलाब की
विक्रम[छोटे भ्राता स्वर्गीय राधवेन्द्र की याद में ]
प्यार को नाम......
प्यार को नाम तो सौदाई दिया करता हैं
यह तो बन नूर हर इक दिल में रहा करता हैं
इसको रिश्तो की जजीरो में न बाँधा कीजै
यह वो जज्बा हैं जिसे रूह से समझा कीजै
अश्क बनके भी यह आखों में रहा करता हैं
प्यार को नाम ........................................
यह वो मय हैं जिसे दिल ही में उतारा कीजै
पी भी आखों से पिलाया भी उसी से कीजै
दर्द बनके यह नशा दिल में रहा करता हैं
प्यार को नाम .....................................
तख्तो -ताजो में इसे आप न खोजा कीजै
खून के कतरो मे इसको तो तलाशा कीजै
अपनी कुर्बानी पे यह फक्र किया करता हैं
प्यार को नाम.......................................
विक्रम [८। ७। १९ ९४,की रचना ]
शनिवार, 1 मार्च 2008
दे पिला ये सुर्ख से रंग .............
दे पिला ये सुर्ख से रंग ,शाम के भर जाम में
वो न फिर से माँग बैठे , खूने दिल पैगाम में
जिन्दगी का हॆ वजू, जीने के इस अंदाज में
इक शमां बन कर जले, गर दूसरो की राह में
साज कोई लय नहीं हैं ,लय बसा हर साज में
हर नई सुबहो छिपी हैं ,इक गुजरती रात में
हैं मुझे भी देखना, अब इस सितम के दौर में
इस गमें-सागर में मिलता हैं सुकूँ किस छोर में
इम्तिहां की इन्तिहां के, हर हदों के पार में
मैं मिलूंगा फिर से उनसे, बस इसी हालत में
vikram
कवि सुन तू मेरे मन के द्वन्द
कवि सुन तू मेरे मन के द्वन्द
इक कली आज मुरझाई
उस पर बहार न आई
फेका उसको पथ-रज में
रच दे उस पे भी एक छंद
कवि ...........................
मधु-ॠतु था जीवन मेरा
हर पल था नया सवेरा
वे प्रेम पुष्प ले आये
बाजे थे मेरे मन मृदंग
कवि ........................
हर चित्र अधूरा छूटा
न माने मृदु मनुहारो से
क्यू वीणा के स्वर हुये मंद
कवि ...................................
विक्रम